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पीलीभीत के आचार्य देवेंद्र देव का 19 वां महाकाव्य “दिवेर घाटी का युद्ध”, उजागर करेगा “द कश्मीर फाइल्स” जैसा विस्मृत इतिहास

महाराणा प्रताप ने लड़ा व जीता था दिवेर घाटी का युद्ध, महाकाव्य में याद दिलाया “द कश्मीर फाइल्स” जैसा विस्मृत इतिहास

–हिंदी में 19 महाकाव्य रचकर पूरनपुर के देवेंद्र ‘देव’ ने गढ़ा नव इतिहास

इतिहास में पढ़ाया जाने वाला हल्दी घाटी का युद्ध महाराणा प्रताप की पराजय की कथा लगती है परन्तु दिवेर घाटी का युद्ध एक ऐसी शौर्यगाथा है जिसमें महाराणा प्रताप आतातायियों को पराजित करके युद्ध जीतते हैं और जनहितकारी शासन की मिशाल भी कायम करते हैं। भारतीय इतिहास में दिवेर घाटी के युद्ध को कश्मीरी पंडितों की व्यथा की भांति भले ही स्थान न मिल पाया हो परन्तु अब पीलीभीत जनपद के पूरनपुर निवासी वरिष्ठ साहित्यकार आचार्य देवेंद्र ‘देव’ ने दिवेर घाटी के युद्ध पर महाकाव्य लिखा है। उनका यह महाकाव्य “द कश्मीर फाइल्स” फ़िल्म की भांति ऐसे राज खोलेगा कि देश हतप्रभ सा यह पूछने को विवश हो जाएगा कि महाराणा प्रताप की यह शौर्य कथा इतिहास में वर्णित व शामिल क्यों नहीं है। उनके इस नवीन महाकाव्य के कथानक व रचनाकार आचार्य देवेंद्र देव के बारे में और जानकारी दे रहे हैं समाचार दर्शन 24 के सम्पादक सतीश मिश्र-

 

पीलीभीत से महाराणा प्रताप का जरूर ही पुराना सम्बंध रहा होगा। तभी तो इस इतिहास पुरुष की शौर्यगाथा यहां के कवि व साहित्यकार पुराने समय से लिखते आये हैं। छुटपुट रचनाओं को छोड़ दिया जाए तब भी पीलीभीत के पास ऐसा काफी कुछ है जो महाराणा प्रताप जी का शौर्य वर्णित करने हेतु काफी है। पूरनपुर निवासी राजकवि पंडित रामभरोसे लाल पांडेय “पंकज” जी ने “हिंदूपति महाराणा प्रताप’ महाकाव्य की
रचना 1972 से 1980 के दौरान की थी। इसका संपादन उनके शिष्य आचार्य देवेन्द्र देव ने किया था।
लोकहित प्रकाशन लखनऊ द्वारा
वर्ष 1997 में इस महाकाव्य को प्रकाशित किया गया। इसका
विमोचन वर्ष 1998 में नागपुर में तत्कालीन सरसंघचालक प्रो. रज्जू भैया और नाना पाटेकर द्वारा किया गया था। इस महाकाव्य में महाराणा प्रताप के साथ उनके घोड़े चेतक की वीरता का वर्णन भी किया गया है। बाद में हल्दी घाटी के युद्ध पर कविवर श्याम नारायण पांडेय रचित खंड काव्य भी आया जिसमें महाराणा प्रताप के हल्दीघाटी के युद्ध में पराजित होने व जंगल में रहकर घास की रोटियां खाने को मजबूर होने जैसी कथाओं का मार्मिक वर्णन किया गया है परंतु उनकी युद्ध जीतने की जो कहानी है वह दिवेर घाटी युद्ध की है। इसमें महाराणा प्रताप युद्ध जीत जाते हैं और वर्षों तक शासन भी करते हैं।
यह नया महाकाव्य पूरनपुर (पीलीभीत) के मूल निवासी व हाल निवासी महानगर बरेली आचार्य देवेंद्र देव जी द्वारा लिखा गया है। वे बताते हैं कि ‘दिवेर घाटी का युद्ध पढ़कर आप निश्चित ही हल्दीघाटी की घटना’ को भूल जाएंगे। उनके अनुसार दिवेर घाटी का वह युद्ध जिसे सत्तर वर्षों तक तथाकथित सेकुलर सरकारों और उनके पालतू इतिहासकारों ने जनसामान्य से इसलिए छुपाकर रखा क्योंकि उन्हें अपने पुरखे ‘अकबर’ को ‘महान’ सिद्ध करना था। यह वह युद्ध था जिससे महाराणा प्रताप का प्रतापी गौरव फिर से स्थापित हुआ। कैसे, इस बात का पूरा रहस्य खोलेगा आचार्य देवेन्द्र देव का शीघ्र प्रकाश्य, ‘दिवेर घाटी का युद्ध’ शीर्षक वाला, उन्नीसवां महाकाव्य। जिसकी रचना पूर्ण हो चुकी है और प्राथमिकता से प्रकाशित कराए जाने की तैयारी है।

यह है दिवेर घाटी के युद्ध का कथानक

शायद कम लोगों को ही पता होगा कि महाराणा प्रताप ने अपने जीवनकाल में दो युद्ध लड़े। पहला हल्दी घाटी का जिसे काफी ख्याति मिली। इस युद्ध में महाराणा प्रताप को पराजित दिखाकर दीन-हीन दशा में मैदान छोड़कर भागा हुआ दिखाकर छोड़ दिया गया था।उसके बाद इतिहासकार/काव्यकार मौन हो गये। वास्तविकता यह है कि ऐसी स्थिति में राष्ट्रभक्त मेवाड़ी श्रेष्ठि-सामन्त भामाशाह की सहायता के बल पर राणा ने अनेक क्षत्रिय राजपूतों और कोल-भिल्ल सरदारों को मिलाकर सेना का पुनर्गठन कर गोगूँदा, कुम्भलगढ़, दिवेर छापली आदि समस्त मेवाड़ प्रदेश मुगलों से वापस छीन लिया था। इस युद्ध में जहां राणा प्रताप ने एक उज़्बेकिस्तानी मुगल सिपहसालार बहलोल ख़ान को अपनी तलवार के एक ही प्रहार से उसके घोड़े सहित करेले जैसा आधा-आधा चीर दिया था, वहीं उनके पुत्र अमर सिंह ने दूसरे सिपहसालार सुल्तान उर्फ सोरिया ख़ान जो अकबर का चाचा था, के सिर पर भाले का ऐसा प्रहार किया कि भाला ज़मीन में गड़ गया और अपने घोड़े सहित सोरिया ख़ान उसमें नथ गया था। इस युद्ध में छत्तीस हज़ार सिपाहियों ने राणा के सम्मुख आत्मसमर्पण किया था। जिसे देखकर अकबर का मुख्य सेनापति शहबाज़ ख़ान भाग गया था। राणा प्रताप के इस पराक्रम से अकबर इतना भयभीत हो गया था कि पहले वह अपनी राजधानी आगरा से उठाकर लाहौर, फिर वहां से मालवा ले गया और वहाँ से सीधा अरब भाग गया। अकबर तब लौटा जब 1598 में उसे राणा प्रताप की मृत्यु की सूचना मिली। वापस आकर भी उसके और उसके बाद उसके किसी वंशधर ने मेवाड़ की ओर पलटकर देखने का साहस नहीं किया। समस्त मेवाड़ जीतने के बाद राणा प्रताप का राज्याभिषेक हुआ और राणा ने बारह वर्षों तक सम्राट की भाँति विधिवत् शासन किया और व्यवस्थाएं सुधारीं। दिवेर घाटी में राणा की विजय का समाचार सुनकर उनका भाई शक्ति सिंह भी मुगल-दरबार को लात मारकर राणा से आकर मिल गया था।

“दिवेर घाटी का युद्ध” महाकाव्य की कुछ झलकियां

चौदह सर्गों में रचित अपने इस अनूठे महाकाव्य में आचार्य देवेंद्र देव ने अनेक छन्दों का प्रयोग किया है। महाकाव्य में विविध प्रसंगों में कवि की लेखनी के कुछ कमाल दृष्टव्य हैं:-

वह उच्चभाल, तलवार, ढाल लेकर त्रिकाल बनकर आया।
राणा घोड़े पर हो सवार था महाकाल बनकर आया।

पैदल से पैदल भिड़े और असवार भिड़े असवारों से।
भालों से गले मिले भाले, तलवार मिलीं तलवारों से।

उस महासमर में यवनों के शोणित की गहरी धार चली।
रजपूतों की ऐसी खच खच खच खच खच खच तलवार चली।

राणाप्रताप के घोड़े का भी एक कमाल देखें:-

केसरी-सदृश जिसमें उमंग, सच में चेतक का जोड़ा था।
वह काल बना था घूम रहा, या स्वयं काल का घोड़ा था।

हीं हीं में चंडी ध्यान किये, टप-टप में डमरू गान लिये।
ए घोड़ा था नभ में घूम रहा सागर का एक उफान लिये।

राणा प्रताप की तलवार का भी जौहर देखिए:-

कुछ हाथ कटे, कुछ पाँव कटे, कुछ रुंड कटे, कुछ मुंड कटे।
राणा के तीव्र प्रहारों से यवनों के अगणित झुंड कटे।

इस ओर गिरे, उस ओर गिरे, कुछ यहां गिरे, कुछ वहा गिरे। जो बचे परस्पर पूछ रहे, ‘वे कहां गिरे, वे कहाँ गिरे?

सराहा जा रहा महाकाव्य, द कश्मीर फाइल्स जैसा बता रहे साहित्यकार

इस प्रकार के अनेक रोमांचकारी शब्द चित्र आपको दिवेर घाटी के युद्ध महाकाव्य में पढ़ने को मिलेंगे। चित्तौड़ के महाकवि पं. नरेंद्र मिश्र, अलवर के वीर रस के प्रतिष्ठित कवि बलवीर सिंह ‘करुण’ और विनीत चौहान ने अपने मंतव्यों में इस महाकाव्य को अद्भुत व अभूतपूर्व बताया है। मनीषियों का मानना है कि आचार्य देवेन्द्र जी का यह महाकाव्य ‘द कश्मीर फाइल्स’ की तरह अपने भारतीयों को गर्व-गौरव भरे एक नये इतिहास से परिचित कराएगा। पूरनपुर में देवेंद्र देव के पुराने साथी पंडित रामअवतार शर्मा व अंशुमाली दीक्षित को गर्व है कि उनका कोई सखा इतिहास के उन पहलुओं को उजागर करने में जुटा है जिन्हें विस्मृत सा कर दिया गया था। जिले के वरिष्ठ कवि निरंजन स्वरूप नगाइच, केके मिश्रा, अमिताभ अग्निहोत्री, अविनाश चन्द्र मिश्र चन्द्र, जितेश राज, संजीव मिश्रा शशि, आलोक मिश्र, डॉक्टर यूआर मीत, देव शर्मा विचित्र, अमिताभ मिश्र आदि ने भी श्री देव को इस नये महाकाव्य के लिए शुभकामनाएं प्रेषित की हैं।

विश्व रिकार्ड : देवेंद्र देव ने अब तक लिखे कुल 19 महाकाव्य, बारह हो चुके प्रकाशित

हिंदी महाकाव्य लेखन में पूरनपुर के आचार्य देवेंद्र देव विश्व रिकॉर्ड कायम करने की ओर हैं। विश्व में हिंदी भाषा में सर्वाधिक 9 महाकाव्य (गूगल पर 12) उज्जैन के पंडित श्रीकृष्ण ‘सरल’ जी ने लिखे थे। आचार्य देवेंद्र देव ने उन पर भी अपना तेरहवां महाकाव्य “शंख महाकाल का” लिखकर उनका रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिया है और अब वे 19 महाकाव्य लिखकर विश्व रिकॉर्ड की डगर पर बेरोकटोक बढ़ रहे हैं। उनके महाकाव्यों की बात करें तो कुल 19 महाकाव्यों का श्रेणीवार विवरण इस तरह है-

आचार्य देवेंद्र देव ने सैन्य अभियानों पर उन्होंने कुल 3 महाकाव्य लिखे हैं जिनमें बाँग्ला-त्राण’, ‘राष्ट्रपुत्र यशवन्त’ और ‘कैप्टन बाना सिंह शामिल हैं।
आचार्य देवेंद्र देव का प्रिय विषय अध्यात्म है। अब तक वे अध्यात्म पर कुल 7 महाकाव्य लिख चुके हैं। इनमें ‘गायत्रेय’, ‘युवमन्यु’, ‘हठयोगी नचिकेता’, ‘ब्रह्मात्मज’, ‘उत्तर मानस’, ‘क्रान्तिमन्यु स्वामी श्रद्धानन्द’ शामिल हैं। जिन 5 महापुरुषों को भी उन्होंने अपने महाकाव्यों का महापात्र बनाया है वे हैं ‘अग्नि-ऋचा’, ‘बलि-पथ, ‘इदं राष्ट्राय’, ‘लौहपुरुष’ और ‘लोक-नायक’
क्रान्तिकारी महाकाव्य के रूप में उनके द्वारा रचित जो महाकाव्य
हैं उनमें ‘पं.रामप्रसाद बिस्मिल’ व ‘बिरसा मुंडा’ प्रमुख हैं। साहित्य पर उनका इकलौता महाकाव्य
“शंख महाकाल का” है। अब नया महाकाव्य ऐतिहासिक श्रेणी में है जिसे
“दिवेर घाटी का युद्ध” नाम दिया गया है।

देवेंद्र देव की रचनाधर्मिकता से आच्छादित प्रदेश

आचार्य देवेंद्र देव ने जिन प्रदेशों को अपनी रचनाधर्मिता में स्थान दिया है उनमें उत्तराखंड, कश्मीर, उत्तर प्रदेश, बंगाल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र,
गुजरात, झारखंड, बिहार, मध्य प्रदेश, पंजाब व राजस्थान शामिल हैं। उनके महाकाव्यों के महापात्रों का जन्म या कर्म क्षेत्र इन प्रदेशों में ही रहा है।
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देवेंद्र देव के रचना संसार पर शोध को मिली मंजूरी

अभी तक आप सबने हिंदी साहित्य में तुलसीदास, सूरदास, मुंशी प्रेमचंद, बिहारीलाल, महादेवी वर्मा, मलिक मुहम्मद जायसी, मैथली शरण गुप्त जैसे बड़े कवि व साहित्यकारों पर ही शोध किए जाने की बात सुनी होगी परंतु गौरव की बात यह है कि पूरनपुर में जन्मे और बरेली सहित सम्पूर्ण देश में प्रवास करके राष्ट्र चेतना की अलख जगाने वाले आचार्य देवेंद्र देव के रचना संसार पर शोध कार्य शुरू हुआ है। मध्य प्रदेश के जीवा जी विश्वविद्यालय ग्वालियर द्वारा उनके रचना संसार पर शोध की मंजूरी दी गई है। इसमें आचार्य देवेंद्र देव द्वारा रचित महाकाव्य व अन्य रचनाओं पर शोधार्थी राकेश कुमार ओझा द्वारा शोध किया जाएगा। शोध का विषय है ‘आचार्य देवेंद्र देव का रचना संसार और राष्ट्रीय चेतना’। हिंदी विभाग के प्राध्यापक डॉ सतीश चतुर्वेदी के निर्देशन में यह शोध कार्य स्वीकृत हुआ है।

साहित्य में लीन है देव जी का पूरा परिवार, कवि साहित्यकारों की फौज कर दी तैयार

देश के मशहूर शायर वसीम बरेलवी का शेर है कि “जहां जाएगा रोशनी लुटायेगा चिराग का अपना कोई मकां नहीं होता” यह कहावत आचार्य देवेंद्र देव पर भी फिट बैठती है। उन्होंने पूरनपुर व पीलीभीत में कवि व साहित्यकारों की एक बहुत बड़ी फौज खड़ी कर दी है। अब वे बरेली सहित पूरे देश में साहित्य की अलख जगा रहे हैं। उनका पूरा परिवार भी साहित्यिक गतिविधियों से जुड़ा हुआ है। उनकी बड़ी पुत्री पूनम वर्मा इस समय देश की ख्यातिलब्ध कवियत्री हैं और देश भर में उनके काव्य पाठ को सराहा जा रहा है। उनके पुत्र डॉक्टर रंजन विशद आयुर्वेद के राजकीय चिकित्सा अधिकारी हैं और एक श्रेष्ठ गीत व गजलकार के रूप में भी प्रतिष्ठित हुए हैं। छोटे पुत्र उदितेन्दु निश्चल भी कविता लेखन कर रहे हैं। छोटी पुत्री नीलाक्षी नृत्यकला प्रशिक्षक के रूप में ललित कला को नव आयाम दे रही है। उनके समधी किशन सोनी देश के ख्यातिलब्ध चित्रकार हैं। आचार्य देवेंद्र देव देश की अनेक साहित्यक व सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हैं। ललित कलाओं को समर्पित अभा साहित्यक संस्था संस्कार भारती में वे अखिल भारतीय साहित्य विधा टोली के मार्गदर्शक हैं जबकि हिंदी साहित्य भारती में देवेंद्र देव अंतरराष्ट्रीय उपाध्यक्ष का दायित्व निर्वहन कर रहे हैं। नव युग में प्रचार प्रसार की वाहक बनी सोशल मीडिया पर भी उनकी सक्रियता निरंतर देखी जाती है।

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