
गणतंत्र दिवस : शुभागमन हुआ है लोक के नवल विहान का, समस्त हिन्दवासियों के गर्व का, गुमान का”
सम्पूर्ण आह्वान गीत
नये गणतन्त्र का
शुभागमन हुआ है लोक के नवल विहान का।
समस्त हिन्दवासियों के गर्व का, गुमान का।
मिला हमें पुनीत और गौरवेय पर्व यह,
प्रणम्य क्रान्तिकारियों के दिव्य यशोगान का।
न जाने कितने वीर-वृन्द फाँसियों पे चढ़ गये।
विशुभ्र कीर्ति-कौमुदी से आसमान मढ़ गये।
न मोह माना प्राणों का,न प्रीति परिजनों की कुछ,
स्वतन्त्र भाव से स्वतन्त्रता के पथ पे बढ़ गये।
उन्हें नहीं हैं जानती समाज की ये पीढ़ियाँ।
बने हमारे सौख्य के शिखर की जो हैं सीढ़ियाँ।
चलो, तुम उनके हाथ शौर्य से लिखी किताब दो।
नवीन कर्म क्षेत्र को नवीन इन्क़लाब दो।।(१)
न हैं हमारे सामने सतोगुणी चुनौतियाँ।
हमें चिढ़ा रही हैं धृष्टताओं की बपौतियाँ।
न मात्र बाहरी, अपितु स्वदेश के भी शत्रुगण,
मना रहे हैं राष्ट्र तोड़ने की फिर मनौतियाँ।
न जिनकी जाति का पता, न जिनके बाप का पता।
परन्तु मिल गया है उनके हर कलाप का पता।
मनस्विनी उदारता दिखाओगे कहाँ तलक,
शकुनि तुम्हारी देहरी को इंच-इंच नापता।
जगो स्वराष्ट्र-रक्षको! जगो स्वधर्म-पक्षको!
उठो त्रिकाल के कराल व्याल-बाल-भक्षको!
जो शठ हैं उनको शाठ्य के ही रूप में जवाब दो।
नवीन कर्म क्षेत्र को नवीन इन्क़लाब दो।।(2)
हमारे देश को नया मिला है सार्थवाह अब।
जो बीन-बीन राष्ट्र-द्रोही कर रहा तबाह अब।
समेट सारी सृष्टि से समृद्धि की सँजीवनी,
करेगा दूर कोटि-कोटि कण्ठ की कराह अब।।
दरिद्रता के कारणों को पी रहा समूल जो।
हिला रहा विदेशों के अहंकरों की चूल जो।
चला है सत्यनिष्ठ अपने भाव से, प्रभाव से,
उदर में भ्रष्टता के, हूलने को, ले त्रिशूल जो।
सुखद भविष्य के लिए है लक्ष्य यह बहुत बड़ा।
दिगन्त तक विजय के हेतु अश्व सामने खड़ा।
समर्थनों की, इस शिवा को, फिर नयी रक़ाब दो।
नवीन कर्म क्षेत्र को नवीन इन्क़लाब दो।।(3)
अधिक न वक्त है तुम्हारे पास मेरे साथियो!
न चिन्तनों को लगने दो प्रमाद जैसा पोलियो।
उठो विरोधियों की भ्रान्तियों के वक्ष चीर दो।
गँवाओ यूँ न ज़िन्दगी, जियो तो ढंग से जियो।
उन्हें है हिन्दुता से चिढ़, न दूर होगी जो कभी।
बता चुकी स्वरूप जबकि इसका न्यायपीठ भी।
असंंख्य जाति-पाँति, वर्ग, वर्ण-भेद,गोदकर
उसी पे नित नये प्रहार कर रहे हैं ये सभी।
विदार आत्म- मुग्धता व लाभ-लोभ-लीनता।
प्रवंचकों के भाग्य के मुखे मलो मलीनता।
समय को सौम्य स्वाभिमान से सना रुआब दो।
नवीन कर्म क्षेत्र को नवीन इन्क़लाब दो।।(4)
भुला के बैर-भाव मिल रहे हैं साँप-नेवले।
सजा रहे पतंग-कीटों को हैं मंच छिपकले।
न दाल गल रही है फिर पक रही हैं खिचड़ियाँ,
पकाने में लगे हैं दोगलों के संग छागले।
रहीं हरेक युग में इसी भाँति की प्रवृत्तियाँ।
उखाड़ती रहीं सुधर्मिता की मूलभित्तियाँ।
मगर अभीत धर्म-रक्षकों के दल डटे रहे,
मिलीं पलीत पातकों से अन्ततः निवृत्तियाँ।
विकास के ये चित्रपट जिन्हें न रास आ रहे,
प्रवंचना प्रसार कर जो भ्रान्तियाँ बढ़ा रहे,
उन्हें, उन्ही की भाषा में जुलाब बे-हिसाब दो।
नवीन कर्म क्षेत्र को नवीन इन्क़लाब दो।(5)
हमारा देश फिर से शान्ति, सौख्य का निधान हो।
पुनः प्रतिष्ठ अपने हिन्द का ये संविधान हो।
प्रभूत भक्ति-भावना-समृद्ध राष्ट्र-गान के,
विगुंजनों से युक्त यह ज़मीन-आसमान हो।
शिखर पे सोहती पवित्र पाग केसरी रहे।
हिमानी से सतत सुरम्य निर्झरी झरी रहे।
यही सँदेश और कामना है राष्ट्र-केतु की
हरीतिमा से गोद, मातृभूमि की, भरी रहे।
हरे अनय, अमंगलों का सारा तिमिर तोम जो,
भरे जो ज्ञान के प्रकाश से समग्र व्योम जो,
स्वदेश को पुनः यही प्रबुद्ध आफ़ताब दो।।
नवीन कर्म क्षेत्र को नवीन इन्क़लाब दो।।(6)

–आचार्य देवेन्द्र देव (बरेली प्रवास)