
“गिरगिट जैसे रंग बदलते….गैर नहीं अपने ही छलते’
अन्तर्मन की व्यथा कथाएं।
कहिए कैसे किसे सुनाएं।
सिकता सा मरु में जलता मन।
बोलो शान्ति कहाँ से पाएँ।।
गिरगिट जैसे रंग बदलते।
गैर नहीं अपने ही छलते।
अपने सुख से सुखी नहीं हैं।
सुखी देख औरों को जलते।
इनको हम कैसे समझाएँ ।
बोलो शान्ति कहाँ से पाएँ।।
शिशु के पालन में रत माता।
लेती तोड़ सुखों से नाता ।
बल यौवंन पाकर ही वह सुत।
नीड़ स्वयं का दूर बनाता ।
सब कुछ सह लेती माताएँ।
बोलो शान्ति कहाँ से पाएँ।।
शैशव में पितु का घर द्वारा।
यौवन में पति प्राण से प्यारा।
और जरा में पुत्र सहारा।
आश्रित ही रहती अबलाएँ।
बोलो शान्ति कहाँ से पाएँ।।
रचनाकार-पंडित रामअवतार शर्मा
अध्यक्ष देवनागरी उत्थान परिध्द