किसान दिवस : है किताब में लिखा बहुत कुछ, हर किसान के हिस्से, बैठ खेत की मेंड़ सिसकता, दर्द कहे वो किससे
विश्व किसान दिवस
सोने जैसा गेहूँ बोला , धीरे से सरसों से,,
मालिक नही दिखे हैं दादा,मुझको कल परसों से।
हफ्ते दस दिन पहले बैठे थे कुछ कुछ मुरझाए,
मगर उदासी क्यों छाई थी, हम कुछ समझ न पाए।
तुम भी स्वस्थ खड़े हो डटकर,हम भी झूम रहे हैं,
फिर क्यों मालिक ओढ़ उदासी मुख पर घूम रहे हैं?
सरसों बोला- फसल मूल्य से चिंतित होंगे भाई,,
मेहनत की जी तोड़ खेत में लागत खूब लगाई,,
पककर जब तैयार हुए तो, मोल नहीं है कोई,
खेतों से संसद तक हैं, सारी सरकारें सोई,,,
कानूनी किताब में उलझे,नीति नियम अब सारे,,
हाथ जोड़ मालिक होंगे, अब किसी देव के द्वारे।
बगल खड़ा गन्ना सुनता था, दोनों की ही बातें,
झेल चुका था प्रकृति दण्ड की बेमौसम बरसातें।
बोला-मखमल ओढ़ लिखे संसद ने भाग्य हमारे,
लेकिन कभी नहीं दो पल भी अपने साथ गुजारे
पका पकाया पाते हैं, सो खाते और छितराते,
मालिक की मेहनत की कीमत, ऐसे लोग लगाते।
बिडम्बना है- बिन अनाज के जीवित कौन रहेगा?
लेकिन मालिक के हक़ में कुछ, कोई नहीं कहेगा।
खेती इक अपराध बन गई, और किसान अपराधी,
कब जीना, कब मरना, इसका चयन करेगी खादी।
है किताब में लिखा बहुत कुछ, हर किसान के हिस्से,
बैठ खेत की मेंड़ सिसकता, दर्द कहे वो किससे।।
चेतो ओ सरकार! सुनो- भूखे पेटों की बातें,
बहुत कँपाती नंगे तन को, सर्दी की बरसातें।
लेकिन जब बागी होती है भूख और लाचारी,
खा लेती है कुर्सी, बंगले , रोटी की दुश्वारी।
फसल मूल्य दिलवा दो इनको,उचित आंकलन करके,
वरना। दण्ड भुगतना होगा, तुमको भूखों मरके,,
©ब्रम्ह स्वरूप मिश्र “ब्रह्म”
(फेसबुक बाल से साभार)
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