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जरूर सुनिये यह ‘विचित्र’ गीत : ये कड़वी सच्चाई है कमर तोड़ मंहगाई है।

रोटी, घर है कपड़ा है जीवनभर का लफड़ा है
आग लगी बाजारों में मंहगाई ने जकड़ा है
बिना तेल की बाती है जलते ही बुझ जाती है
ये कड़वी सच्चाई है कमर तोड़ मंहगाई है।

दाम तेल के बढ़ते हैं अखबारों में पढ़ते हैं
कैसे कह दें अन्न नहीं गोदामों में सड़ते हैं
बेकारी है एक तरफ मारामारी एक तरफ़
सच को दियासलाई है कमरतोड़ मंहगाई है।

जीना है तो खाना है ढर्रा बड़ा पुराना है
केवल आंसू पीना है भूखे ही सो जाना है
करने को भी काम नहीं अगर करें तो दाम नहीं
पूरा तंत्र कसाई है कमरतोड़ मंहगाई है।

पानी का भी फंडा है इससे सस्ता ठंडा है
तीस रूपय में आलू है पांच रुपये का अंडा है
करेंगे क्या शाकाहारी बर्ड फ़्लू की बीमारी
चौके तक घुस आई है कमरतोड़ मंहगाई है।

हर ज़ुबान पर चर्चे है बच्चों के भी खर्चे हैं
ड्रेस किताबों से मंहगे इम्तिहान के पर्चे हैं
टीचर नहीं पढ़ाते हैं ट्यूशन पर बुलवाते हैं
रोती खड़ी पढ़ाई है कमरतोड़ मंहगाई है।

जीवन का अनजान सफ़र कटा जा रहा सड़को पर
सोंचा करता हूँ हरदम पास हमारे भी हो घर
पूरा जो हो सकता है लेकिन ऐसा लगता है
उतनी नहीं कमाई है कमरतोड़ मंहगाई है।।

देव शर्मा विचित्र (कवि/एडवोकेट) पूरनपुर।

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