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गणतंत्र : भारत में अब संविधान की बदल गई परिभाषा, कैद हुआ कानून जेब में न्याय पे चढ़ा कुहासा।।

भारत में अब संविधान की बदल गई परिभाषा।

कैद हुआ कानून जेब में न्याय पे चढ़ा कुहासा।।

जिसकी लाठी भैस उसी की हुई कहावत साची।

लालू से जयललिता तक कानून से आगे नाची।।

अपराधी कानून बनाते खुद ही हाथ में ले के।

चप्पल जूते माइक कुर्सी सदन बीच में फेकें।।

जिंदा हो मृत, मृत हो जिंदे फर्जी हो बैनामें।

कर्मी तब ही कलम चलावे पहले पैसा थामें।।

बिन पैसा के पुलिस न माने चाहे जो हो किस्सा।

अपराधी से बंधा महीना कफन में लेते हिस्सा।

पढ़ना छात्र नहीं चाहते उनको नकल  सुहाती।

होवे भला हिमायतियों  का बने जुर्म के  साथी।।

करके  जुर्म कचहरी  जाओ बना वकालतखाना।

पैसा देकर साफ बचो तो गुण लक्ष्मी के गाना।।

पत्रकार भी रोब जमाते तिल का ताड़ बनाएं।

जनहित रखा ताक पर केवल स्वार्थ के गुण गाएं।।

नेताजी विमान में उड़ते देते नहीं किराया।

अधिकारी अपराधी चाकर करते हैं मन भाया।।

उस पर भी यह रौब देश का हमने मान बढ़ाया।

कोयला शकर यूरिया खाते चर जाते हैं चारा।।

हर विभाग में नया घोटाला देश लूट गया सारा।।

सोने की चिड़िया को हमने दे दिया देश निकाला।

हैं अति व्यथित “सतीश” देश का है क्या होने वाला।।

रचनाकार-सतीश मिश्र “अचूक”

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