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गोवंश की उपेक्षा देखकर नाराज हो जायेंगे गोपाल, समझिए कितना हैं बेहाल

गोवंश के लिए समाज बनता जा रहा कंस

सतीश मिश्र ‘अचूक’

हम सब ब्रज प्रांत के वासी इस समय होली पर्व की तैयारियों में जुटे हुए हैं। ब्रज धाम में होली की धूम है कहीं लठमार होली जारी है तो कहीं फूलों की होली और कहीं लड्डू से होली खेली जा रही है। बात जब ब्रज धाम की होती है तो भगवान श्रीकृष्ण जी और उनकी लीलाएं याद आ जाती हैं। हमारा सनातन धर्म बताता है कि हमारे प्रभु श्री कृष्ण जी ने गऊ पालक के रूप में गौ माता की खूब सेवा की। इसलिए उनका नाम गोपाल पड़ गया था। शायद भगवान श्री कृष्ण जी ने समाज को गोपालन का संदेश देने के लिए ही ऐसी लीला रचाई थी। बताते हैं कि भगवान अपने सखाओं के साथ गाय चराने जंगल की तरफ जाते थे और दिनभर गाय चराने के बाद शाम को घर लौटते थे। गायें जब जंगल में खो जाती थीं तो भगवान बांसुरी बजाकर सबको बुला लेते थे। हम लोग उस शहर से हैं जहां भगवान श्री कृष्ण जी की सबसे प्रिय बांसुरी बनाई जाती है। शायद वे जंगल भी पीलीभीत के ही रहे होंगे जहां भगवान श्री कृष्ण जी गौ माता की सेवा करते थे। आज के समय में गौ माता की हालत देखकर ऐसा लगता है कि हम सब भगवान श्री कृष्ण को अपना देवता तो मानते हैं परंतु गोपालन के मामले में हम लोग कंस के अनुयाई बन गए हैं। आज पूरा समाज गौ माता के लिए कंस की भूमिका में नजर आता है। कोई अपने घरों से स्वार्थ पूर्ति न होने पर भगा देता है, तो कोई गलियों में डंडे मारते दिखाई देता है। खेतों में फसल चरने पहुंचने वाले इन गोवंश को भालों से गोदा जाता है। कटीले तारों की बाड़ लगाकर इन्हें रोका जाता है। कहीं-कहीं तो तारों में करंट भी छोड़ दिया जाता है। मतलब कि हम लोग पूरी तरह से इस मामले में कंस बन चुके हैं और गौ माता की रक्षा सुरक्षा व पालन की बात भूल गए हैं और हर तरह से गौ माता का उत्पीड़न, बहिष्कार व परित्याग करना जारी रखे हुए हैं। क्या हम लोगों ने भगवान श्री कृष्ण जी को मनाना छोड़ दिया है। हम लोग अत्याचारी कंस के रूप में उभर कर क्यों आ रहे हैं। इसका सीधा सा कारण है हम लोगों का स्वार्थी हो जाना। स्वार्थ ने समाज को अंधा कर दिया है, पथ भ्रमित कर दिया है। हम लोग गोपालन भूल रहे हैं और कंस के रूप में गोवंश पर अपना अत्याचार जारी रखे हुए हैं। क्या हम लोगों को भी भगवान श्री कृष्ण जी के पुनः अवतार लेने की उम्मीद है और इसीलिए कंस के राज्य की तरह अत्याचार बढ़ते जा रहे हैं। जो भी हो लेकिन यह सब काफी दर्दनाक है और यह देख सुनकर भी किसी के कानों पर जूं न रेंगना यह साबित करता है कि हम लोग कितना निर्दयी हो गए हैं। कलयुग में भौतिकता के पीछे भागने वाले हम लोग जब अपने माता की सेवा ही नहीं कर पा रहे हैं तो गोवंश को हम लोगों से कोई उम्मीद रखनी भी नहीं चाहिए। पर वे ठहरे निरीह पशु, शायद हम सबकी चालाकियां उनकी समझ में नहीं आती होंगी। लेकिन समाज की सेवा का ढोंग करने वाले, कथा, भागवत आदि के माध्यम से समाज को दिशा देने वाले तमाम ऐसे साधु संत, कथावाचक व समाजसेवी हैं जिन्हें ज्ञानी कहा जाता है और उन्हें समाज में कुछ ऐसी पहल करनी चाहिए जिससे कि गोवंश को मान सम्मान और पालन पोषण मिल सके। दुख की बात यह है कि अभी तक गौवंश के साथ कोई भी खड़ा नहीं है और न ही कोई बड़ा आंदोलन गोवंश को लेकर प्रारंभ हुआ है।

गोवंश बन सकता है चुनावी मुद्दा

देश में आम चुनाव का बिगुल बज गया है। ऐसे में गोवंश चुनावी मुद्दा बन सकता है परंतु मुद्दा यह बनेगा कि किसानों की फसलों को गोवंश नुकसान पहुंचा रहे हैं। उन्हें सरकार आशय ग्रहों में भेजें। किसानों की फसलों को बचाए। उनको मुआवजा दे परंतु वही किसान एक बार यह नहीं सोचेंगे कि इन गोवंश को सड़कों पर लाने के लिए वह कितने बड़े कसूरवार हैं। किसी सरकार ने या किसी व्यापारी ने या किसी अन्य वर्ग ने इतने अधिक पशु सड़कों पर नहीं छोड़े हैं। सीधी बात है कि किसान व पशु पालकों ने ही इन पशुओं को आवारा बनाया है। दूध न मिलने पर या मशीनीकरण होने पर पशुओं को छोड़ दिया गया है।अगर किसान एक बार यह बात सोचें और गोवंश को पुनः अपनाए तो उनकी जिंदगी भी बदल सकती है। जिस तरह मां-बाप की सेवा न करने से श्राप लगता है उसी तरह गोवंश भी शायद श्राप के अतिरिक्त अब और कुछ नहीं दे सकते। किसानों को खेती करने में हो रहा घाटा इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। जब बैलों से खेत जोतकर किसान खेती करते थे तो उनको महंगा डीजल नहीं खरीदना पड़ता था। गोवंश के गोबर से ही खेत उपजाऊ बन जाते थे और महंगी खाद नहीं खरीदनी पड़ती थी। इससे खेती की लागत घटती थी या यूं कहें कि काबू में रहती थी और किसान काफी कुछ बचा लेता था। घर में दूध होने से मट्ठा, घी, मक्खन, खौया, रबड़ी आदि आज मुफ्त में ही मिल जाता था। घर की साग सब्जी के विकल्प का इंतजाम हो, मेहमान की आवभगत हो या होली पर गुजियां बनाने की बात हो, एक गाय से ही सब कुछ सहज उपलब्ध हो जाता था। आज गोवंश को सड़क पर छोड़कर किसान भाई भी सुखी नहीं हैं। खेतों की पराली गोवंश के खाने के काम आती थी अब इस पराली को जलाने पर वे जेल भी जा रहे हैं। गावों में गाय के बच्चे हमारे नन्हे मुन्ने बच्चों के साथ खेलते थे। उनके ऊपर हाथ फिराने से शांति मिलती थी। कई रोगों का निदान भी गाय के स्पर्श से होना बताया जाता है। गाय के शरीर में देवताओं का वास होता है। उसके सभी उत्पाद कीमती हैं।
गाय के शरीर में मौजूद गोरोचन जैसी कीमती वस्तुएं भी गोवंश के कत्ल का कारण बने हैं। कुछ लोगों को इसका मुलायम मांस पसंद है, हड्डियों से खाद आदि बनती है। खालों से पैरों के लिए मुलायम जूते भी बनाए जाते हैं। मतलब मरने के बाद भी कितना कुछ हम कुपुत्रों को दे जाती है गौ माता, पर फिर भी हम सबकी समझ में कुछ नहीं आता। शायद हम सबसे रूठ गया है विधाता। हे मां सरस्वती कंस बन रहे ब्रजवासियों को सद्बुद्धि दीजिए। वे चैन की बंशी बजाना छोड़कर कृष्ण जी के सच्चे अनुयाई बनकर गो सेवा करें तभी उनको सुख समृद्धि मिल पाएगी।

सरकार के प्रयास उचित, बीच की बाधाएं हटाएं

गोवंश के संरक्षण के लिए सरकार ने गांवो में ही हुआ गोआश्रय स्थल खाली पड़ी जमीन पर बनाने के लिए प्रधानों को निर्देशित किया है। उनकी सेवा के लिए रखे जाने वाले अनुचरों का मानदेय मनरेगा से निकलेगा। पशुशाला बनाने व फेसिंग आदि का काम भी इसी योजना से हो जाएगा। इससे ग्राम सभा गोबर आदि से आमदनी भी कमा सकती है। गोशाला से एक गोवंश लेने पर 50 रुपया प्रतिदिन यानी 1500 रुपया महीना सरकार दे रही है। कोई भी किसान चार पशु ले सकता है। यानी 6000 का मानदेय लेकर चार पशु पाले जा सकते हैं। हकीकत में सरकार ने प्रयास किया परंतु बीच में बैठे लोगों ने इसमें रोड़े अटकाये हैं। जिम्मेदार लोग आश्रय स्थल बनाने में लापरवाही करने लगे। अगर कहीं बन भी गया तो उन पशुओं का चारा खाने में भी पीछे नहीं रहे। पशु भूखे मरते देखे जा रहे हैं। इन पशुओं को पालन हेतु लेकर उन्हें मार देने व फर्जी भुगतान लेने के मामले भी प्रकाश में आए हैं।सरकार को चाहिए कि पशुपालन विभाग में सख्ती बढ़ाए और पशु गणना के बाद सभी गोवंश के कानों पर जो टैग लगता है उसके हिसाब से बीच-बीच में पशुओं का भौतिक सत्यापन भी कराए ताकि पता लगे कि किसने पशु छोड़ा है। जो छोड़ रहा है उस पर जुर्माना लगाया जाना चाहिए, एफआईआर हो। गोपालन के लिए और अधिक प्रोत्साहन देने की भी जरूरत है। मतलब एक सख्त निगरानी सिस्टम हो जिससे कोई ना तो मवेशी सड़कों पर छोड़ सके और जहां जितने भी आश्रय स्थल है वहां भी पारदर्शी व्यवस्था बनाई जाए। गोबर से खाद बनाने के पुराने तरीके पर भी सरकार अनुदान आदि की व्यवस्था करे तो गोवंश को जीवित रखा जा सकता है। क्योंकि जब आज की सरकार राम और कृष्ण की बात करती है और गायों की उपेक्षा होती है तो यह एकदम विपरीत सा नजर आता है। जिस तरह से प्रधानमंत्री जी व अन्य जनप्रतिनिधि अपने पार्टी का चुनाव के दौरान प्रचार प्रसार करने पर ध्यान देते हैं ठीक उसी तरह गोवंश की रक्षा व सुरक्षा के लिए भी उन्हें आगे आना चाहिए। प्रदेश के मुख्यमंत्री खुद तो गोपालन व गो सेवा करते हैं परंतु वे प्रदेश की जनता को इस महत्वपूर्ण काम से नहीं जोड़ पा रहे हैं। वे इसे कर सकते हैं परंतु इसके लिए और अधिक प्रयास करने की जरूरत है।

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