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कविता : पीत वसन इस धरा ने ओढ़ा । शीत को सूर्य ने पीछे छोड़ा ।

पीत वसन इस धरा ने ओढ़ा ।
शीत को सूर्य ने पीछे छोड़ा ।
धुंध छँटी और गया कुहासा ।
सुखद हुई मौसम की आभा ।
पल्लवित पेड़ हुए इतराये ।
पुष्प खिले किसलय मुस्काये ।
हे प्रिय ! क्यों अब तक ना आये ।

प्रकृति ने दुल्हन रूप सजाया ।
रति सा सुन्दर यौवन पाया
मलय सुंगधित चतुर्दिक बहती
मन में प्रेम भाव सब भरती
हरे खेत चहुँदिश मुस्काते
तन मन सब उर्जित कर जाते
मदमाता मौसम भटकाए ।
हे प्रिय ! क्यों अब तक न आये ।

शीत पवन ऊष्मा सी लाये
छूकर मेरा तन दहकाये
अंग अंग ज्वाला में तप कर
स्वर्ण से कुंदन बनता जाए ।
अधरों पर अतृप्त पिपासा ।
मधुर मिलन संजोती आशा ।
देखत राह नयन मुरझाये
हे प्रिय ! क्यों अब तक न आये ।

नेह गरल उर में उतराता
प्रायः बिचलित करता जाता
मादकता तुम पर ना छाई
प्रभु ने कैसी दृष्टि बनायी
सुधि तेरी अँखियाँ छलकाए
तुझ पर क्यों कर असर न आये
या तू बन बैठा है जोगी
या कोई सौतन ले आये ।
हे प्रिय ! क्यों अब तक न आये …
हे प्रिय ! क्यों अब तक न आये …।

योगेंन्द्र पाठक

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