आइये प्रभु राधाकृष्ण रस विलास आनंद के लिए आपको ले चलते हैं वृंदावन

‌ रस विलास

अनंत रस सुधानिधि श्रीमधुराधिपति भगवान की रसविलासता का दर्शन एवम रसास्वादन उनके नित्य परिकर भ्रमर की भांति नित्य करते रहते है। परंतु! रस विलक्षणता के कारण अन्नंत रस ग्रहण करने पर भी तृप्ति का अनुभव नही होता, वरन प्यास ओर बढ़ती रहती है। जिस प्रकार चंद्रमा अपनी कलाओं से बढ़ता रहता है ठीक उसी प्रकार भावुक जन भी रसाप्त होने के लिए उस रस का सेवन करते -२ पूर्णता में प्रवेश चाहते है । पर! रस की इकाई अनन्त होने से वहाँ तक पहुँचना संभव नही।
क्योकि!! रस कि एक बात विशेष है– “”दिने दिने नवम-२ प्रतिक्षणम वर्धमानं””
वो प्रतिक्षण बढ़ता ही रहता है। और अगर मन की बात कहूं तो प्रतिक्षण रस का ये उत्थान ही रस को रास में परिवर्तित कर देता है। और अधिकारी जनों को पूर्ण रस का आस्वादन कराकर रसराज स्वयं भी रस के लोलुप होकर महाभाव में अवस्थित हो जाते है। और इसी महारासरस के सुमधुर पान की निगूढ़ता में एक कल्प का समय बीत जाता है। “” ब्रह्मरात उपावर्त्ते””
परंतु! भव पाश के बंधन से आबद्ध जीव के लिए भले ही ये अंतिम रस हो, जहाँ पहुचने के लिए रसिक लोग बड़ा यत्न करते है। और करोड़ो २ में से कोई बिरला ही इस दिव्य दंपति का संगी बन पाता है।
पर! श्रीकृष्ण रसराज होने पर भी मादनादि रसों के लिए श्री वृन्दावनेश्वरी से अनुनय- विनय करते रहते है। कि कहि श्रीराधा जी ने उनकी ओर देखकर स्मित बिखेरा तो उन्हें भी श्रीरासेश्वरी के पाद् – पद्म की रज की रस का आस्वाद हो सके। रसिको की भाषा मे रस विलास की लीला में श्रीकृष्ण नित्य ही श्रीनिभृतनिकुंज में अवस्थित होकर श्रीजी के चरणों की सेवा करते है। ताकि श्री किशोरी जी का रस उनके हृदय में उस प्रकार रहे जैसे स्वाति के जल को चातक ग्रहण करता है।

💐💐 जय श्री कृष्ण 💐💐

 आध्यात्मिक प्रवक्ता — ब्रजराज जी जोशी💐

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