अचूकवाणी : झुमका कभी गिरा था जिस नगरी के बाजार में। आज स्वयं झुमके वाली ही भटक रही मझधार में।
“अचूक” का काव्यमय पैगाम, समझदारों के नाम
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झुमका कभी गिरा था जिस नगरी के बाजार में।
आज स्वयं झुमके वाली ही भटक रही मझधार में।।
हुआ दिवालिया जो “रावण” इससे पहले व्यापार में।
“सीता हरण” वही करता है माहिर है व्यभचार में।।
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घर से भागे, खौफ सताया, पहले पहले प्यार में।
भाई, बाप कसाई कहकर, शोर मचा संसार में।।
चैनल तक पहुँचाया किसने, साजिश भी यूं रच डाली,
पाला पोसा प्यार लुटाया क्या तुम पर बेकार में।।
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कैसे कह दूं, खूब पढ़ाओ और बचाओ बेटी को।
कैसे कह दूं, खुद नुचवाओ इज्जत रूपी चोटी को।।
चिंता उनको अपनी, अपने घर की संचित इज्जत की,
चिंता उनको अभी बचा लें, तेरी नुचती बोटी को।।
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चैनल वाले भूल समस्या, प्रेम कहानी दिखा रहे।
जाति भेद, आतंक दिखा कर, भाईचारा सिखा रहे।।
पर उपदेश कुशल बहुतेरे, सभी आचरण भूल गए,
वे ममत्व, अपनत्व सभी की नदियां मित्रो सुखा रहे।।
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कलियुग घुटनों के बल, आ पाया है अब तक यारो,
युवा हुआ , सरपट दौड़ा तो, क्या हो? इससे रीता हूँ।।
क्या होगा इस देश का यारो? इसी फिक्र में जीता हूँ।
हुआ कलेजा चाक, उसे दिनरात आजकल सीता हूँ।।
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सतीश मिश्र “अचूक”
कवि/पत्रकार मो-9411978000
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