
एक चालीसा जिसे सुनाते ही दूर हो जायेगी घर की टेंशन
जगत कहे बा कौ दुखियारी।
पर पत्नी है सब पै भारी।।
मारै पर रोने ना देवे।
अपने मन की सब कर लेवे।।
बात अलग ये घर है उसका।
बात मगर सच, ना है मसका।।
सुबह सवेरे रोज उठै वो।
फिर घर के सब काम करै वो।।
चाय बना कर सबै पिलावै।
जो भी रुठै उसै मनावै।।
आवैं जितने अतिथि इकट्ठे।
आशिष देते जावैं घर से।।
सास ससुर देउर दिउरानी।
सबके मन की पत्नी रानी।।
मगर नाम पति को जब आवै।
खोटी खरी कड़ुई सुनावै।।
कउन पाप हमने कर लीन्हा।
तुम सो पति प्रभु हमको दीन्हा।।
रोज रोज की बस यहि रटना।
पकड़ लेय तौ छोड़ै हठ ना।।
पति को आँख दिखावै अइसे।
अबहिं घोर पी जावै जइसे।।
सज्जन पति पर करै वो शंका।
घर लागै फिर जइसे लंका।।
फिर भी कहहुँ बात इक फिर मैं।
समिआई भी भरी है उसमैं।।
पीर पड़ै पति सर जब भारी।
पास न होवै जब महतारी।।
तब पत्नी ही सर को दबाबै।
सुबकै अरु फिर लाड़ जताबै।।
कहे नाथ तुम ही बस अपने।
तुम से ही सच होते सपने।।
तुरतहि पति झांसे में आवै।
फिर पत्नी पर प्यार लुटावै।।
अलग अलग है मति दोनों की।
चलै तबहि तो नोका झोकी।।
साथ साथ दिखतीं इह पटरी।
एक गृहस्थी एकहि गठरी।।
फिर भी अन्तर है सब जानी।
कोइ न राजा कोइ न रानी।।
इक सिक्के के दोनउ पहलू।
एक लक्छमी एक है उल्लू।।
लाख दिखावै पति हुसियारी।
पर पत्नी है सब पै भारी।।
रोज झुकावउ सर सदा, चरणन रगड़ौ माथ।
पत्नी की पूजा करौ, जोड़ौ दोनउ हाथ।।
@ दिनेश वर्मा कनक, पूरनपुर
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