मर्द, सर्द ऋतु हो गयी, कँपा रही है हाड़। मैदानों की बात क्या? सहमे खड़े पहाड़

जाड़े का दोहा दशक

मर्द, सर्द ऋतु हो गयी, कँपा रही है हाड़।
मैदानों की बात क्या? सहमे खड़े पहाड़।।

जमकर जिसने रख दिये, गुरदे सबके छील।
‘आबे जम जम’ बन गयी, कश्मीरी डल झील।।

निज वर्चस्वी तेज की, करवाते पहचान।
द्रास, सियाचिन में अड़े, योद्धा वीर जवान।।

पहले तो हँसते रहे, देख समय की मार।
हुए उसी में लीन, फिर, अमरनाथ, केदार।।

देख चतुर्दिक् बर्फ के गोलों की बौछार।
सूरज ने थक खीझकर डाल दिये हथियार।।

सहमी लतिका, बल्लरी, तरूवर साधे मौन।
घुमा रही हन्टर हवा,इससे उलझे कौन।।

कल-कल करती थी नदी, बहती थी अविराम।
अब जब तब दृग खोलती,जपे राम का नाम।।

राजमार्ग पर बेधड़क,रहा कुहासा तैर।
लगा बादलों बीच, बस, करा रही है सैर।।

रखा मेज पर लग रहा, सूरज पेपर वेट।
नन्हें-से चण्डोल-सा,पृथुल इण्डिया गेट।।

कहें विक्रमादित्य से, सिकुड़ सिकुड़ वेताल।
जहाँ कहेगा,चलूँगा, बेटा, मुझे सँभाल।।

. . .-आचार्य देवेन्द्र देव

Related Articles

Close
Close
Website Design By Mytesta.com +91 8809666000
preload imagepreload image