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जरूर पढिये आचार्य देवेंद्र देव की कविता :एक तरफ कोरोना का भय, एक तरफ ये भूखे पेट। निकल पड़े क़िस्मत के मारे अपना झोला-झाम समेट।

परिदृश्य

एक तरफ कोरोना का भय, एक तरफ ये भूखे पेट।
निकल पड़े क़िस्मत के मारे अपना झोला-झाम समेट।।

पीठ, शीश पर बैग,गठरियाँ, कन्धों पर, गोदी में लाल।
देख रहे ‘आई’, ‘बापू’ के मुख पर पसरा हुआ मलाल।।

बरसों पहले महानगर आये थे जो गाँवों को छोड़।
नयी ज़िन्दगी के सपनों से अपने चेतन, चिति की जोड़।।

रिक्शे खींचे, साग-सब्ज़ियाँ, फल बेचे रेहड़ी पर ठेल।
मुख में, नाकों में, पेटों के, कसी लगामें और नकेल।।

नहीं किराये पर मिल पाये जब कोई खोखा,दूकान।
फुटपाथों पर लगा-लगा फड़ बेचा आवश्यक सामान।।

बेलदार कुछ बने और कुछ बने कारख़ानों में ‘मेट’।
लगा खोमचे कचौड़ियों के, धोने लगे थालियाँ,प्लेट।।

मण्डी में पल्लेदारी की, पीठों पर पड़ गये निशान।
लेकिन सुख-स्वप्नों की ख़ातिर घटने नहीं दिये औसान।।

ख़ून-पसीना एक कर दिया, मेहनत की आलस फटकार।
दो रोटी की जुगत हुई तो बुला लिया सारा परिवार।।

झुग्गी झोपड़ियों में रहकर, बहकर समय-सरित के बीच।
लगे पालने और पढ़ाने बच्चे, अपना रक्त उलीच।।

बरसों काटे दिवस मुम्बई,दिल्ली और अहमदाबाद।
किया चेन्नई, कलकत्ता, बँगलौर, अमृतसर को आबाद।।

कोरोना के इस राक्षस ने ऐसी आज तरेरी आँख।
टूट गयी है आसमान में उड़ते हर पंछी की पाँख।।

आन पड़ा प्राणों का संकट, चिन्तित क्या अपने, क्या ग़ैर।
अपने घर में बन्दी होकर, मना रहे सब अपनी ख़ैर।।

बाज़ारों में बन्द दुकानें, हुए कारखाने सब बन्द।
गलियों, सड़कों पर नीरवता विचर रही होकर स्वच्छन्द।।

नर्स, डाक्टर,पुलिस,सफाईकर्मी पग-पग पर मुस्तैद।
शासन और प्रशासन सबको किये पड़ा घर में ही क़ैद।।

निकल चीन से अमेरिका, इटली में ढँग से पैर पसार।
कोरोना ने छिन्न-भिन्न कर दिये हज़ारों घर-संसार।।

महाविनाश रोकने के हित किये हिन्द ने सकल प्रबन्ध।
लागू अपनी प्रीत प्रजा पर कर दी कर्फ्यू की सौगन्ध।।

रेल-बसें सब बन्द हो गयीं, वायुयान की बन्द उड़ान।
दुनिया को बेज़ार कर गया दुष्ट चीन का शहर वुहान।।

मोदी जी ने जनहित में हैं लगा दिये प्रतिबन्ध तमाम।
क्या छोटी, क्या बड़ी गाड़ियाँ, हुए सभी के पहिए जाम।।

बचा न निबलों के सम्मुख जब रोज़ी-रोटी का आधार।
लौट पड़े अपने गाँवों को सँग ले अपना घर,परिवार।।

भारत के उन्नत विकास की रुकने को है गति मजबूर।
कर डाले इस कोरोना ने हर पीढ़ी के सपने चूर।।

जिनके अपने-अपने घर हैं,कोठी-कोठे सब सम्पन्न।
भरे हुए है दूध,दही,घी, शकर,सब्ज़ियाँ, दलहन, अन्न।।

उनको क्या चिन्ता है, आँगन बैठे, लेटे पैर पसार।
आज नहीं तो बीस दिनों के बाद पड़ेगा चल व्यापार।।

असल मौत तो उनकी है जिनका हो गया भविष्य तबाह।
बरसों तक कम हो न सकेगा उनके अन्तर्मन का दाह।।

राजमार्गों पर पैदल ही वृन्द रहे हैं दूरी नाप।
पेट पीठ से चिपकाये जो चले जा रहे हैं चुपचाप।।

पैरों में है थकन, उदर में भूख और अधरों पर प्यास।
कर दी फिक्र महामारी की जिनने बिलकुल ही खल्लास।।

कवि अधीर है देख-देखकर बिगड़े हुए समय का दौर।
देखो, कब भगवान करे जन-गण की इस विपदा पर ग़ौर।

शासन संग समाज-संगठन हैं यद्यपि संवेदनशील।
सब प्रयास कर रहे कि निकले चुभी हुई पैरों की कील।।

खाने-पीने के प्रबन्ध में लगे हुए हैं भावक लोग।
पुलिस-बान्धव बने देवता, जो समझे जाते थे रोग।

 

गाँव पहुँचने के संसाधन सुलभ कराए् हर सरकार।
पूर्ण करे उन सबको भोजन-पानी, जिसकी है दरकार।

उजड़े लोग घरों तक पहुँचें, भोजन पाएँ भूखे पेट।
पापी कोरोना न करे अब अधिक जीवनों का आखेट।

हम भी निश्चित करें भूमिका अपनी-अपनी रुचि अनुसार।
ममता पर न्यौछावर कर दें निज क्षमताओं के भण्डार।

जीवन-रक्षा में जो साधक लगे हुए हैं उनको, ईश।
इतनी महिम महत्ता दे, वे कहलाएँ सतयुगी महीश।।

मोदी, योगी-सदृश नायको सँग इन सबको कोटि प्रणाम।
इनका वन्दन अभिनन्दन, इस कवि की यात्रा चारो धाम।


रचनाकार-आचार्य देवेन्द्र ‘देव’

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