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हर छठ आज : जानिए कैसे की जाती है इस पर्व पर पूजा

घुंघचाई। हरछठ की पूजा के लिए गन्ना, ढाक के पत्ते, पसाई के चावल की खीर और चने का प्रसाद वैदिक विधि विधान से पूजन अर्चन के साथ चढ़ाया जाता है जिसकी तैयारियां ग्रामीण अंचलों में लोगों को पुरानी पद्धति याद कराती हैं वही वैवाहिक कार्यक्रम मुंडन संस्कार के अलावा अनुष्ठान जिन घरों में हुए हैं उनके यहां यह पूजा विशेष रूप से की जाती है जिसको लेकर के व्यापक रूप से तैयारियां पूरी कर ली गई। भगवान हलधर को पूजने की पद्धति ग्रामीण अंचलों में पुराने कार्यक्रमों की तरह आज भी जीवंत है। पूजा कार्यक्रम में गन्ना, चना, पसाई की खीर सुहागिन गौरारियों को पूजा के बाद दही के साथ परोसा जाता है। इस लिंक से पर्व के बारे में और जानें-

https://youtu.be/F5CR8Y1bC9w

जिन लोगों के यहां गन्ने की खेती ग्रामीण अंचलों में नहीं होती है उनके यहां आस पड़ोस के लोग जिनके यहां गन्ने की खेती की जाती है वे लोग गन्ना देने पहुंचते हैं। इस पूजा पद्धति में विशेष रुप से सुहागिन महिलाएं एकत्र होती हैं। हर छठ पारंपरिक तरीके से पूजा मनाई जाती है और मंगल गीत गाकर के भगवान हलदर का गुणगान किया जाता है। 

रिपोर्ट-लोकेश त्रिवेदी


हल षष्ठी 17 अगस्त बुधवार विशेष
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*हलषष्ठी का शुभ मुहूर्त:*
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षष्ठी तिथि १६ अगस्त २०२२, दिन मंगलवार को रात्रि को रात्रि 12:01 बजे से आरम्भ और १७ अगस्त को रात्रि 11:52 बजे तक रहेगा।

उद्यापन, मोखद्ध रात्रि ०9:१८ बजे के बाद होगा। चन्द्रोदय रात्रि १०:11 बजे पर होगा।

*व्रत महात्म्य विधि और कथा*
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भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की षष्ठी बलराम जन्मोत्सव के रूप में देशभर में मनायी जाती है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार मान्यता है कि इस दिन भगवान शेषनाग ने द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण के बड़े भाई के रुप में अवतरित हुए थे। इस पर्व को हलषष्ठी एवं हरछठ के नाम से भी जाना जाता है। जैसा कि मान्यता है कि बलराम जी का मुख्य शस्त्र हल और मूसल हैं जिस कारण इन्हें हलधर कहा जाता है इन्हीं के नाम पर इस पर्व को हलषष्ठी के भी कहा जाता है। इस दिन बिना हल चले धरती से पैदा होने वाले अन्न, शाक भाजी आदि खाने का विशेष महत्व माना जाता है। गाय के दूध व दही के सेवन को भी इस दिन वर्जित माना जाता है। साथ ही संतान प्राप्ति के लिये विवाहिताएं व्रत भी रखती हैं।

हिन्दू धर्म के अनुसार इस व्रत को करने वाले सभी लोगों की मनोकामनाएं पूरी होती है. मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण और राम भगवान विष्णु जी का स्वरूप है, और बलराम और लक्ष्मण शेषनाग का स्वरूप है. पौराणिक कथाओं के संदर्भ अनुसार एक बार भगवान विष्णु से शेष नाग नाराज हो गए और कहा की भगवान में आपके चरणों में रहता हूं, मुझे थोड़ा सा भी विश्राम नहीं मिलता. आप कुछ ऐसा करो के मुझे भी विश्राम मिले. तब भगवान विष्णु ने शेषनाग को वरदान दिया की आप द्वापर में मेरे बड़े भाई के रूप में जन्म लोगे, तब मैं आपसे छोटा रहूंगा।

हिन्दू धर्म के अनुसार मान्यता है कि त्रेता युग में भगवान राम के छोटे भाई लक्ष्मण शेषनाग का अवतार थे, इसी प्रकार द्वापर में जब भगवान विष्णु पृथ्वी पर श्री कृष्ण अवतार में आए तो शेषनाग भी यहां उनके बड़े भाई के रूप में अवतरित हुए. शेषनाग कभी भी भगवान विष्णु के बिना नहीं रहते हैं, इसलिए वह प्रभु के हर अवतार के साथ स्वयं भी आते हैं. बलराम जयंती के दिन सौभाग्यवती स्त्रियां बलशाली पुत्र की कामना से व्रत रखती हैं, साथ ही भगवान बलराम से यह प्रार्थना की जाती है कि वो उन्हें अपने जैसा तेजस्वी पुत्र प्राप्त करें।

शक्ति के प्रतीक बलराम भगवान श्री कृष्ण के बड़े भाई थे, इन्हें आज्ञाकारी पुत्र, आदर्श भाई और एक आदर्श पति भी माना जाता है। श्री कृष्ण की लीलाएं इतनी महान हैं कि बलराम की ओर ध्यान बहुत कम जाता है। लेकिन श्री कृष्ण भी इन्हें बहुत मानते थे। इनका जन्म की कथा भी काफी रोमांचक है। मान्यता है कि ये मां देवकी के सातवें गर्भ थे, चूंकि देवकी की हर संतान पर कंस की कड़ी नजर थी इसलिये इनका बचना बहुत ही मुश्किल था ऐसें में देवकी के सातवें गर्भ गिरने की खबर फैल गई लेकिन असल में देवकी और वासुदेव के तप से देवकी का यह सत्व गर्भ वासुदेव की पहली पत्नी के गर्भ में प्रत्यापित हो चुका था। लेकिन उनके लिये संकट यह था कि पति तो कैद में हैं फिर ये गर्भवती कैसे हुई लोग तो सवाल पूछेंगें लोक निंदा से बचने के लिये जन्म के तुरंत बाद ही बलराम को नंद बाबा के यहां पालने के लिये भेज दिया गया था।

*बलराम जी का विवाह*
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यह मान्यता है कि भगवान विष्णु ने जब-जब अवतार लिया उनके साथ शेषनाग ने भी अवतार लेकर उनकी सेवा की। इस तरह बलराम को भी शेषनाग का अवतार माना जाता है। लेकिन बलराम के विवाह का शेषनाग से क्या नाता है यह भी आपको बताते हैं। दरअसल गर्ग संहिता के अनुसार एक इनकी पत्नी रेवती की एक कहानी मिलती है जिसके अनुसार पूर्व जन्म में रेवती पृथ्वी के राजा मनु की पुत्री थी जिनका नाम था ज्योतिष्मती। एक दिन मनु ने अपनी बेटी से वर के बारे में पूछा कि उसे कैसा वर चाहिये इस पर ज्योतिष्मती बोली जो पूरी पृथ्वी पर सबसे शक्तिशाली हो। अब मनु ने बेटी की इच्छा इंद्र के सामने प्रकट करते हुए पूछा कि सबसे शक्तिशाली कौन है तो इंद्र का जवाब था कि वायु ही सबसे ताकतवर हो सकते हैं लेकिन वायु ने अपने को कमजोर बताते हुए पर्वत को खुद से बलशाली बताया फिर वे पर्वत के पास पंहुचे तो पर्वत ने पृथ्वी का नाम लिया और धरती से फिर बात शेषनाग तक पंहुची। फिर शेषनाग को पति के रुप में पाने के लिये ज्योतिष्मती ब्रह्मा जी के तप में लीन हो गईं। तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने द्वापर में बलराम से शादी होने का वर दिया। द्वापर में ज्योतिष्मती ने राजा कुश स्थली के राजा (जिनका राज पाताल लोक में चलता था) कुडुम्बी के यहां जन्म लिया। बेटी के बड़ा होने पर कुडुम्बी ने ब्रह्मा जी से वर के लिये पूछा तो ब्रह्मा जी ने पूर्व जन्म का स्मरण कराया तब बलराम और रेवती का विवाह तय हुआ। लेकिन एक दिक्कत अब भी थी वह यह कि पाताल लोक की होने के कारण रेवती कद-काठी में बहुत लंबी-चौड़ी दिखती थी पृथ्वी लोक के सामान्य मनुष्यों के सामने तो वह दानव नजर आती। लेकिन हलधर ने अपने हल से रेवती के आकार को सामान्य कर दिया। जिसके बाद उन्होंनें सुख-पूर्वक जीवन व्यतीत किया।

बलराम और रेवती के दो पुत्र हुए जिनके नाम निश्त्थ और उल्मुक थे। एक पुत्री ने भी इनके यहां जन्म लिया जिसका नाम वत्सला रखा गया। माना जाता है कि श्राप के कारण दोनों भाई आपस में लड़कर ही मर गये। वत्सला का विवाह दुर्योधन के पुत्र लक्ष्मण के साथ तय हुआ था, लेकिन वत्सला अभिमन्यु से विवाह करना चाहती थी। तब घटोत्कच ने अपनी माया से वत्सला का विवाह अभिमन्यु से करवाया था।

*बलराम जी के हल की कथा*
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बलराम के हल के प्रयोग के संबंध में किवदंती के आधार पर दो कथाएं मिलती है। कहते हैं कि एक बार कौरव और बलराम के बीच किसी प्रकार का कोई खेल हुआ। इस खेल में बलरामजी जीत गए थे लेकिन कौरव यह मानने को ही नहीं तैयार थे। ऐसे में क्रोधित होकर बलरामजी ने अपने हल से हस्तिनापुर की संपूर्ण भूमि को खींचकर गंगा में डुबोने का प्रयास किया। तभी आकाशवाणी हुई की बलराम ही विजेता है। सभी ने सुना और इसे माना। इससे संतुष्ट होकर बलरामजी ने अपना हल रख दिया। तभी से वे हलधर के रूप में प्रसिद्ध हुए।

एक दूसरी कथा के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी जाम्बवती का पुत्र साम्ब का दिल दुर्योधन और भानुमती की पुत्री लक्ष्मणा पर आ गया था और वे दोनों प्रेम करने लगे थे। दुर्योधन के पुत्र का नाम लक्ष्मण था और पुत्री का नाम लक्ष्मणा था। दुर्योधन अपनी पुत्री का विवाह श्रीकृष्ण के पुत्र से नहीं करना चाहता था। इसलिए एक दिन साम्ब ने लक्ष्मणा से गंधर्व विवाह कर लिया और लक्ष्मणा को अपने रथ में बैठाकर द्वारिका ले जाने लगा। जब यह बात कौरवों को पता चली तो कौरव अपनी पूरी सेना लेकर साम्ब से युद्ध करने आ पहुंचे।

कौरवों ने साम्ब को बंदी बना लिया। इसके बाद जब श्रीकृष्ण और बलराम को पता चला, तब बलराम हस्तिनापुर पहुंच गए। बलराम ने कौरवों से निवेदनपूर्वक कहा कि साम्ब को मुक्तकर उसे लक्ष्मणा के साथ विदा कर दें, लेकिन कौरवों ने बलराम की बात नहीं मानी।

ऐसे में बलराम का क्रोध जाग्रत हो गया। तब बलराम ने अपना रौद्र रूप प्रकट कर दिया। वे अपने हल से ही हस्तिनापुर की संपूर्ण धरती को खींचकर गंगा में डुबोने चल पड़े। यह देखकर कौरव भयभीत हो गए। संपूर्ण हस्तिनापुर में हाहाकार मच गया। सभी ने बलराम से माफी मांगी और तब साम्ब को लक्ष्मणा के साथ विदा कर दिया। बाद में द्वारिका में साम्ब और लक्ष्मणा का वैदिक रीति से विवाह संपन्न हुआ।

*बलदेव (हल चंदन छठ) पूजा विधि*
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कथा करने से पूर्व प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त हो जाएं।

पश्चात स्वच्छ वस्त्र धारण कर गोबर लाएं।

इस तालाब में झरबेरी, ताश तथा पलाश की एक-एक शाखा बांधकर बनाई गई ‘हरछठ’ को गाड़ दें।

तपश्चात इसकी पूजा करें।

पूजा में सतनाजा (चना, जौ, गेहूं, धान, अरहर, मक्का तथा मूंग) चढ़ाने के बाद धूल, हरी कजरियां, होली की राख, होली पर भूने हुए चने के होरहा तथा जौ की बालें चढ़ाएं।

हरछठ के समीप ही कोई आभूषण तथा हल्दी से रंगा कपड़ा भी रखें। बलदेव जी को नीला तथा कृष्ण जी को पीला वस्त्र पहनाये।

पूजन करने के बाद भैंस के
दूध से बने मक्खन द्वारा हवन करें।

पश्चात कथा कहें अथवा सुनें।

ध्यान रखें कि इस दिन व्रती हल से जुते हुए अनाज और सब्जियों को न खाएं और गाय के दूध का सेवन भी न करें, इस दिन तिन्नी का चावल खाकर व्रत रखें।

पूजा हो जाने के बाद गरीब बच्चों में पीली मिठाई बांटे।

*हलषष्ठी की व्रतकथा निम्नानुसार है*
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प्राचीन काल में एक ग्वालिन थी। उसका प्रसवकाल अत्यंत निकट था। एक ओर वह प्रसव से व्याकुल थी तो दूसरी ओर उसका मन गौ-रस (दूध-दही) बेचने में लगा हुआ था। उसने सोचा कि यदि प्रसव हो गया तो गौ-रस यूं ही पड़ा रह जाएगा।

यह सोचकर उसने दूध-दही के घड़े सिर पर रखे और बेचने के लिए चल दी किन्तु कुछ दूर पहुंचने पर उसे असहनीय प्रसव पीड़ा हुई। वह एक झरबेरी की ओट में चली गई और वहां एक बच्चे को जन्म दिया।

वह बच्चे को वहीं छोड़कर पास के गांवों में दूध-दही बेचने चली गई। संयोग से उस दिन हल षष्ठी थी। गाय-भैंस के मिश्रित दूध को केवल भैंस का दूध बताकर उसने सीधे-सादे गांव वालों में बेच दिया।

उधर जिस झरबेरी के नीचे उसने बच्चे को छोड़ा था, उसके समीप ही खेत में एक किसान हल जोत रहा था। अचानक उसके बैल भड़क उठे और हल का फल शरीर में घुसने से वह बालक मर गया।

इस घटना से किसान बहुत दु:खी हुआ, फिर भी उसने हिम्मत और धैर्य से काम लिया। उसने झरबेरी के कांटों से ही बच्चे के चिरे हुए पेट में टांके लगाए और उसे वहीं छोड़कर चला गया।

कुछ देर बाद ग्वालिन दूध बेचकर वहां आ पहुंची। बच्चे की ऐसी दशा देखकर उसे समझते देर नहीं लगी कि यह सब उसके पाप की सजा है।

वह सोचने लगी कि यदि मैंने झूठ बोलकर गाय का दूध न बेचा होता और गांव की स्त्रियों का धर्म भ्रष्ट न किया होता तो मेरे बच्चे की यह दशा न होती। अतः मुझे लौटकर सब बातें गांव वालों को बताकर प्रायश्चित करना चाहिए।

ऐसा निश्चय कर वह उस गांव में पहुंची, जहां उसने दूध-दही बेचा था। वह गली-गली घूमकर अपनी करतूत और उसके फलस्वरूप मिले दंड का बखान करने लगी। तब स्त्रियों ने स्वधर्म रक्षार्थ और उस पर रहम खाकर उसे क्षमा कर दिया और आशीर्वाद दिया।

बहुत-सी स्त्रियों द्वारा आशीर्वाद लेकर
जब वह पुनः झरबेरी के नीचे पहुंची तो यह देखकर आश्चर्यचकित रह गई कि वहां उसका पुत्र जीवित अवस्था में पड़ा है। तभी उसने स्वार्थ के लिए झूठ बोलने को ब्रह्म हत्या के समान समझा और कभी झूठ न बोलने का प्रण कर लिया।

*कथा के अंत में निम्न मंत्र से प्रार्थना करें*
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गंगाद्वारे कुशावर्ते
विल्वके नीलेपर्वते।
स्नात्वा कनखले देवि
हरं लब्धवती पतिम्‌॥
ललिते सुभगे देवि-
सुखसौभाग्य दायिनि।
अनन्तं देहि सौभाग्यं मह्यं,
तुभ्यं नमो नमः॥

अर्थात्- हे देवी! आपने गंगा द्वार, कुशावर्त, विल्वक, नील पर्वत और कनखल तीर्थ में स्नान करके भगवान शंकर को पति के रूप में प्राप्त किया है। सुख और सौभाग्य देने वाली ललिता देवी आपको बारम्बार नमस्कार है, आप मुझे अचल सुहाग दीजिए।

*बलदाऊ की आरती*
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कृष्ण कन्हैया को दादा भैया,
अति प्रिय जाकी रोहिणी मैया

श्री वसुदेव पिता सौं जीजै……
बलदाऊ

नन्द को प्राण, यशोदा प्यारौ ,
तीन लोक सेवा में न्यारौ

कृष्ण सेवा में तन मन
भीजै …..बलदाऊ

हलधर भैया, कृष्ण कन्हैया,
दुष्टन के तुम नाश करैया

रेवती, वारुनी ब्याह रचीजे ….
बलदाऊ

दाउ दयाल बिरज के राजा,
भंग पिए नित खाए खाजा

नील वस्त्र नित ही
धर लीजे,……बलदाऊ

जो कोई बल की आरती गावे,
निश्चित कृष्ण चरण राज पावे
बुद्धि, भक्ति ‘गिरि’
नित-नित लीजे …..बलदाऊ

आरती के बाद श्री बलभद्र स्तोत्र और कवच का पाठ अवश्य करें।

*बलदेव स्तोत्र*
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दुर्योधन उवाच- स्‍तोत्र
श्रीबलदेवस्‍य प्राडविपाक महामुने।
वद मां कृपया साक्षात्
सर्वसिद्धिप्रदायकम्।

प्राडविपाक उवाच- स्‍तवराजं
तु रामस्‍य वेदव्‍यासकृतं शुभम्।
सर्वसिद्धिप्रदं राजञ्श्रृणु
कैवल्‍यदं नृणाम्।।

देवादिदेव भगवन्
कामपाल नमोऽस्‍तु ते।
नमोऽनन्‍ताय शेषाय
साक्षादरामाय ते नम:।।

धराधराय पूर्णाय
स्‍वधाम्ने सीरपाणये।
सहस्‍त्रशिरसे नित्‍यं नम:
संकर्षणाय ते।।

रेवतीरमण त्‍वं वै
बलदेवोऽच्‍युताग्रज।
हलायुध प्रलम्बघ्न
पाहि मां पुरुषोत्तम।।
बलाय बलभद्राय
तालांकाय नमो नम:।
नीलाम्‍बराय गौराय
रौहिणेयाय ते नम:।।

धेनुकारिर्मुष्टिकारि:
कूटारिर्बल्‍वलान्‍तक:।
रुक्म्यरि: कूपकर्णारि:
कुम्‍भाण्‍डारिस्‍त्‍वमेव हि।।

कालिन्‍दीभेदनोऽसि त्‍वं
हस्तिनापुरकर्षक:।
द्विविदारिर्यादवेन्‍द्रो
व्रजमण्‍डलारिस्‍त्‍वमेव हि।।

कंसभ्रातृप्रह‍न्‍तासि
तीर्थयात्राकर: प्रभु:।
दुर्योधनगुरु: साक्षात्
पाहि पा‍हि प्रभो त्‍वत:।।

जय जयाच्‍युत देव परातपर
स्‍वयमनन्‍त दिगन्‍तगतश्रुत। सुरमुनीन्‍द्रफणीन्‍द्रवराय ते
मुसलिने बलिने हलिने नम:।।

य: पठेत सततं स्‍तवनं नर:
स तु हरे: परमं पदमाव्रजेत्।
जगति सर्वबलं त्‍वरिमर्दनं
भवति तस्‍य धनं स्‍वजनं धनम्।।

*श्रीबलदाऊ कवच*
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दुर्योधन उवाच- गोपीभ्‍य:
कवचं दत्तं गर्गाचार्येण धीमता।
सर्वरक्षाकरं दिव्‍यं देहि मह्यं महामुने।

प्राडविपाक उवाच- स्‍त्रात्‍वा
जले क्षौमधर: कुशासन:
पवित्रपाणि: कृतमन्‍त्रमार्जन:।
स्‍मृत्‍वाथ नत्‍वा बलमच्‍युताग्रजं
संधारयेद् वर्म समाहितो भवेत्।।

गोलोकधामाधिपति: परेश्‍वर:
परेषु मां पातु पवित्राकीर्तन:।
भूमण्‍डलं सर्षपवद् विलक्ष्‍यते
यन्‍मूर्ध्नि मां पातु स भूमिमण्‍डले।।

सेनासु मां रक्षतु सीरपाणिर्युद्धे
सदा रक्षतु मां हली च।
दुर्गेषु चाव्‍यान्‍मुसली सदा
मां वनेषु संकर्षण आदिदेव:।।

कलिन्‍दजावेगहरो जलेषु
नीलाम्‍बुरो रक्षतु मां सदाग्नौ।
वायौ च रामाअवतु खे बलश्‍च महार्णवेअनन्‍तवपु: सदा माम्।

श्रीवसुदेवोअवतु पर्वतेषु
सहस्‍त्रशीर्षा च महाविवादे।
रोगेषु मां रक्षतु रौहिणेयो
मां कामपालोऽवतु वा विपत्‍सु।

कामात् सदा रक्षतु धेनुकारि:
क्रोधात् सदा मां द्विविदप्रहारी।
लोभात् सदा रक्षतु बल्‍वलारिर्मोहात्
सदा मां किल मागधारि:।

प्रात: सदा रक्षतु वृष्णिधुर्य:
प्राह्णे सदा मां मथुरापुरेन्‍द्र:।
मध्‍यंदिने गोपसख: प्रपातु
स्‍वराट् पराह्णेऽस्‍तु मां सदैव।।

सायं फणीन्‍द्रोऽवतु मां सदैव
परात्‍परो रक्षतु मां प्रदोषे।
पूर्णे निशीथे च दरन्तवीर्य:
प्रत्यूषकालेऽवतु मां सदैव।।

विदिक्षु मां रक्षतु रेवतीपतिर्दिक्षु प्रलम्‍बारिरधो यदूद्वह:।।
ऊर्ध्‍वं सदा मां बलभद्र आरात्
तथा समन्‍ताद् बलदेव एव हि।।

अन्‍त: सदाव्‍यात् पुरुषोत्तमो बहिर्नागेन्‍द्रलीलोऽवतु मां महाबल:।
सदान्‍तरात्‍मा च वसन् हरि:
स्वयं प्रपातु पूर्ण: परमेश्‍वरो महान्।।

देवासुराणां भ्‍यनाशनं च
हुताशनं पापचयैन्‍धनानाम्।
विनाशनं विघ्नघटस्‍य विद्धि
सिद्धासनं वर्मवरं बलस्‍य।।

हलषष्ठी की बहुत बहुत बधाई और हार्दिक शुभकामनाएं।

पण्डित अनिल शास्त्री, पुजारी, शिव शक्ति धाम मंदिर

 

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