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गजल : “चिरागों को सहेजा हर सुबह को ये बाती रात भर बेशक जली है”

किसी की याद है या बेबसी है।
मिरी खुशियों में जाने क्या कमी है।

नहीं परवाज है अब हसरतों में
यहां तो जिंदगी उलझी पड़ी है।

जमाने को ये समझाएं कहाँ तक
इशकजादों से तो ये हरसू जली है।

जिधर से वो गया हमदर्द दिल का
उसी रस्ते पे वो अब तक खड़ी है।

ये वादे क्या किसी का साथ देंगें
जिन्हें बस टूटने की ही पड़ी है।

पसीना खून दोनों बह चले हैं।
मग़र क्या कामयाबी भी मिली है।

कई दिन रात जब माली ने सींचा
कली तब फूल सी होकर खिली है।

चिरागों को सहेजा हर सुबह को
ये बाती रात भर बेशक जली है।

बँटा है मुल्क कितने दायरों में
उन्हें तो जीतने की ही पड़ी है।

लुटी है आरजूएं हर तरफ यूँ
कि रात ऐसे भी बेवा सी लगी है।

नजर मैं जिस तरफ भी डालता हूँ
वहीं एक आबरू लुटती दिखी है।

कहीं दहशत के मंजर दिख रहे हैं
कहीं वहशत भी मुंह बाए खड़ी है।

लुटी है आबरू एक बार फिर भी।
मग़र अखबार में फिर फिर लुटी है।

वो थाने जाए तो जाए भी कैसे।
वहां तो और भी डरती दिखी है।

कचहरी कोर्ट पेशी हर जगह ही
उसी की आबरू बिखरी पड़ी है।

कोई अखबार कैसे सच लिखेगा।
उसे तो अपने बिकने की पड़ी है।

न गीतों में न कविता में गजल में
हकीकत से मुकरती लेखनी है।

रचनाकार-योगेंद्र पाठक “योगी”
जिला विकास अधिकारी, पीलीभीत

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