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सम्पादकीय : भारत की मिट्टी में सुरक्षित है नेपाल का धन

सम्पादकीय/अचूकवाणी: सतीश मिश्र ‘अचूक’

भारत की मिट्टी में सुरक्षित नेपाली धन

-मिट्टी से बने गोलक, कुल्हड़ गमले व बर्तनों की नेपाल में मिल रही अच्छी कीमत, दर्जनों कुम्भकार प्रतिदिन फेरी लगाने पहुंचते हैं नेपाल

मिट्टी के बने सस्ते मजबूत और टिकाऊ बर्तन ले लो…गोलक ले लो… कुल्हड़ ले लो….गमले ले लो…। ऐसी आवाजें पीलीभीत जनपद से जुड़ने वाली अंतर्राष्ट्रीय सीमा के पास के नेपाली गांवों में अक्सर गूँजतीं रहतीं हैं। सभी जानते व मानते हैं कि भारत की मिट्टी काफी अधिक उपजाऊ है। जहां देश भर में आजकल यह मिट्टी सोने के भाव बिक रही हैं वहीं पड़ोसी देश नेपाल में इस मिट्टी से बनाए गए गोलक नेपालियों का धन सुरक्षित करने के काम आ रहे हैं। युवा पीढ़ी इसे काफी पसंद कर रही है। गोलक के अलावा मिट्टी के बने बर्तन, कुल्हड़ और गमले भी नेपाल में अच्छे दामों पर हाथों हाथ बिक जाते हैं। इसके चलते भारत से काफी संख्या में कुम्भकार मिट्टी से बने बर्तन, गोलक व गमले बेंचने प्रतिदिन नेपाल रवाना होते हैं। जब से शारदा नदी के धनाराघाट पर पैंटून पुल बन गया है तब से इन मेहनतकशों को काफी सहूलियत हो गई है। यह लोग अपनी बैलगाड़ी पर ही अपनी दुकान सजा लेते हैं। मिट्टी के बर्तनों को सुरक्षित रखने के लिए गन्ने की पताई, धान की पराली व घास फूस भी बैलगाड़ी में भरा जाता है। यह लोग कम से कम सौ से डेढ़ सौ तक गमले, बर्तन, कुल्हड़ आदि बैल गाड़ी में भर लेते हैं और इन्हें ले जाकर खजुरिया से जुड़ने वाले नेपाली क्षेत्रों में जाकर बेंच देते हैं। यह लोग गांव गांव अपनी बैलगाड़ी से जाकर फेरी लगाकर बर्तन व गमले बेचते हैं। इन लोगों की माने तो गमला, कुल्हड़, बर्तन व गोलकों का अच्छा दाम नेपाल में मिल जाता है। वहां के लोग इसे काफी पसंद करते हैं। हाथों हाथ पूरी बैलगाड़ी में लदा माल बिक जाता है। अपने धंधे के साथ विदेश यात्रा भी आसानी से हो जाती है। बच्चों के लिए कपड़े, जाकेट व अन्य जरूरी सामान भी यह लोग वापस आते समय खरीद लाते हैं। जिससे लुगाई से लेकर बच्चे तक पूरा घर खुश हो जाता है। जिले की पूरनपुर व कलीनगर तहसील क्षेत्र के कई गांवों से काफी संख्या में कुंभकार नेपाल रवाना होते हैं। यह लोग एक-दो दिन में ही नेपाल में फेरी लगाकर अपना पूरा माल बिकने पर वापस स्वदेश लौट आते हैं।
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वस्तु विनिमय का भी अदभुत प्रयोग

आप सब ने अर्थशास्त्र में उस युग के बारे में जरूर पढ़ा होगा जब मुद्रा नहीं होती थी और लोग वस्तुओं की अदला बदली कर के ही काम चलाते थे। यह कुम्भकार भी कमोबेश इसी नीति पर काम करते हैं और नेपाल में मिट्टी के बर्तन, कुल्हड़, गमले व गोलक देकर अपनी जरूरतों का सामान प्राप्त कर लेते हैं। इसके अलावा नकद में भी जो माल बिकता है उसके बदले जरूरत की कुछ वस्तुएं नेपाल से खरीद लाते हैं। नेपाल का कपड़ा, जैकेट, कॉस्मेटिक सामान, जूते, इलेक्ट्रॉनिक आइटम व चाइनीज सामान काफी सस्ते दाम पर उपलब्ध हो जाता हैं। इस तरह से यह लोग आम के आम गुठलियों के दाम भी कर लेते हैं। जो पैसा नेपाल में मिलता है उससे नेपाली सामान लाकर अपने यहां कुछ मुनाफे पर बेंच देते हैं, जिससे इन्हें नेपाली रुपया भारतीय मुद्रा में बदलने में भी दिक्कत नहीं होती और दोहरा मुनाफा भी हो जाता है। नाम न छापने की शर्त पर कई लोगों ने बताया कि खजुरिया होकर वे सीधे नेपाल में प्रवेश करते हैं। मिट्टी के बर्तन, कुल्हड़, गमले व गोलक होने के कारण इसको एसएसबी या पुलिस भी नहीं रोकती। उधर से इतना कम जरूरत का सामान लाते हैं कि उन्हें कोई परेशान नहीं करता। यह लोग कपड़े, जैकेट व जूते खुद पहन लेते हैं तथा कुछ सामान जरूरत का बता कर ले आते हैं। धंधे से जुड़े लोगों का कहना है कि धनाराघाट का पेंटून पुल बन जाने से उन्हें सहूलियत मिली है और अब वे महीने में चार पांच चक्कर माल तैयार करके लगा सकते हैं। इससे उन्हें अच्छी खासी आमदनी होगी।
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विदेशी मुद्रा अर्जित करने वालों को नहीं मिल रही मदद

यह अच्छी बात है कि अपने देश की मिट्टी भी विदेशी मुद्रा अर्जित करने के काम आ रही है और यह काम कम पढ़े लिखे लोग मामूली निवेश व अपनी मेहनत की बदौलत कर रहे हैं। स्थानीय कुंभकारों का यह प्रयास काफी अच्छा है। अगर इन लोगों को भी सरकार की किसी योजना से कोई मदद मिले तो उनका व्यवसाय और अधिक फल फूल सकता है। पर शायद अभी तक सरकारी सिस्टम का ध्यान ही इस ओर नहीं गया है। और यह उद्यमी भी शायद मुफ्त की मिट्टी से बर्तन तैयार करके उसे घास फूंस व उपलों से पकाकर नेपाल जाकर बेच आते हैं। इतने में बहुत ज्यादा लागत भी नहीं लगती। इसलिए वे कर्ज से भी बचना चाहते हैं। उनका मानना है कि कर्ज के मर्ज में फंसे तो कहीं ना कहीं जरूर उलझ जाएंगे क्योंकि मिट्टी के बर्तनों का धंधा रिस्की है। बरसात होने पर नुकसान होता है। कई बार ले जाते समय बर्तन टूट फूट जाते हैं इससे भी इन लोगों का काफी अधिक नुकसान हो जाता है। हालांकि सरकार कुंभकार प्रोत्साहन योजना के तहत कुंभकारों को प्रशिक्षण व टूल किट प्रदान करती है। उन्हें तेज गति से काम करने हेतु इलेक्ट्रॉनिक चाक भी दिए गए हैं तथा बैंकों से ऋण व अनुदान जैसी योजनाएं भी उपलब्ध हैं परंतु सरकारी सुविधाएं प्राप्त करने के तमाम झंझटों व जानकारी के अभाव में शायद यह लोग इससे वंचित हैं।
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विदेश यात्रा कराते हैं देश में निठल्ले समझे जाने वाले बैल

जिन बैलों को मशीनी युग में नकार कर सड़क पर निराश्रित रूप में छोड़ दिया गया था वही बैल भारत के कुंभकारों को नेपाल की यात्रा बखूबी करा रहे हैं। डनलप रूपी बैलगाड़ी में जुड़कर यह बैल मिट्टी से बने बर्तन, कुल्हड़, गमले व गोलक आदि ले जाकर नेपाल तक पहुंचा देते हैं। हालांकि यह लोग बैलों के खाने पीने की बेहतर व्यवस्था भी कर रहे हैं और उनके जरिए अपना व्यवसाय बढ़ाने के प्रयास में हैं। कई लोगों के पास अच्छी नस्ल के बैल भी हैं और यह तेज गति पर बैलगाड़ी को ले जाने में सक्षम हैं। जब बैलगाड़ी खाली होती है तो उसकी गति और अधिक बढ़ जाती है। इस तरह बैलों का सही उपयोग भी इस धंधे में हो रहा है। अन्य लोगों को भी गोवंश का उचित प्रयोग कुंभकारों से सीखना चाहिए। बैलों से बैलगाड़ी में अपना माल भरकर ले जाने में ना तो कहीं डीजल खर्च होता है और ना ही पेट्रोल, साथ ही टूट-फूट या मरम्मत की दरकार भी नहीं पड़ती। बस बैलों के खाने पीने की व्यवस्था यह लोग करते हैं। नेपाल जाते समय कुछ चारा भी बैलगाड़ी पर तैयार करके रख लेते हैं जिसे दुकानदारी के समय बैल खाते रहते हैं। चारा न होने की स्थिति में नेपाल में भी भूसा व चारे का प्रबंध बैलों के लिए यह लोग कर लेते हैं। ऐसे में गोवंश काफी काम का साबित हो रहा है।
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कर न लगने से मिली राहत

एक समय था जब शारदा नदी के पेंटून पुल से निकलने की एवज में हर किसी को टोल टैक्स देना पड़ता था। पिछली सरकार द्वारा इसे समाप्त कर दिया गया था। अब पेंटून पुल से आने जाने में इन लोगों को कोई भी कर नहीं देना पड़ता है। इसके अलावा नेपाल में प्रवेश करने पर भी बैलगाड़ी पर कोई कर देय नहीं है। इस कारण कुम्भकारों का व्यवसाय एक तरह से कर मुक्ति ही है। मिट्टी के बर्तनों पर जीएसटी आदि कर भी शायद नहीं लगते। इस कारण जितने रुपए का भी माल बिकता है वह इन लोगों की मेहनत का फल व मुनाफा ही होता है। कर मुक्त होने के कारण यह व्यवसाय कुंभकारों को रास आ रहा है।

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