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अचूकवाणी : पीलीभीत में घटती गन्ने की मिठास, किसान निराश

14 दिन में गन्ना मूल्य का भुगतान न होना सबसे बड़ी बाधा, किसानों को भुगतान के लिए करना पड़ रहा धरना प्रदर्शन

तराई के पीलीभीत जनपद में प्रति वर्ष बढ़ता गन्ने का रकवा व उत्पादन इसकी मिठास बढ़ने का एहसास भी कराता है परंतु तमाम ऐसी समस्याएं हैं जिनके चलते गन्ने की मिठास की आस फिलहाल कम हो रही है और गन्ना उत्पादक निराश हो रहे हैं। कहने को तो पीलीभीत जिले में 3 सहकारी व 2 निजी क्षेत्र की चीनी मिलें हैं जिनमें से मझोला चीनी मिल पिछले कई वर्षों से बंद पड़ी है और पूरनपुर व बीसलपुर की सहकारी चीनी मिलें मोटे घाटे में किसी तरह चल रहीं हैं या यूं कहें कि घसिट रही हैं। निजी क्षेत्र की पीलीभीत की एलएच शुगर मिल का भुगतान समय से हो जाता है परंतु बजाज ग्रुप की बरखेड़ा चीनी मिल में किसानों को भुगतान के लिए धरना प्रदर्शन के अलावा तालाबंदी भी करनी पड़ती है, तब कहीं जाकर सालों बाद बकाया गन्ना मूल्य मिल पाता है। इस बार भी ऐसे ही हालात बने और प्रशासन को आंदोलन में हस्तक्षेप करके समझौता कराना पड़ा। किसान नेता पूर्व विधायक वीएम सिंह भी पहुंचे और उन्होंने प्रतिदिन करोड़ों रुपया गन्ना मूल्य भुगतान कराने के आश्वासन के बाद धरना प्रदर्शन समाप्त करने की बात कही। पूरनपुर व बीसलपुर की सहकारी मिलों में भी भुगतान को लेकर समस्या बनी रहती है। गन्ना एक्ट में आपूर्ति के 14 दिन में किसानों का गन्ना मूल्य उनके खाते में भेजने की व्यवस्था है। ऐसा ना होने पर 15 फीसदी ब्याज किसानों को देने की बात भी लिखा पढ़ी में है परंतु चीनी मिलों पर मेहरबानी करते हुए सरकारें ब्याज माफ कर देती हैं और चीनी मिलें इसी कारण भुगतान में अनावश्यक देरी करती हैं। यह एक बड़ी समस्या है जिसके चलते तराई में गन्ने की मिठास फिलहाल कम हो रही है। इस समय किसानों का करोड़ों रुपया मिलों पर बकाया है। इसे 14 दिन के अंदर भुगतान नहीं किया गया है। पिछले पेराई सत्र का भुगतान भी अभी तक लटका पड़ा है। किसान नेता वीएम सिंह इसको लेकर कई बार हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट तक गए परंतु सरकारों के किसान विरोधी रवैया के चलते ब्याज का भुगतान लटका हुआ है। आरोप यह भी है कि चुनावों में किसानों के हमदर्द बनने का दावा करने व मंचों से अपने भाषणों में किसानों की आमदनी दोगुनी करने का दावा करने वाले कोर्ट में चीनी मिलों के साथ खड़े नजर आते हैं।
गन्ना एक ऐसी फसल है जिसके लिए प्रदेश में पूरा एक विभाग काम करता है। कई मंत्री हैं, आयुक्त, सचिव हैं, मंडल पर गन्ने के उपायुक्त, जिले पर गन्ना अधिकारी, तहसीलों व समितियों में गन्ना निरीक्षक, सचिव व गांव स्तर पर पर्यवेक्षक तैनात हैं।
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गन्ने को क्यों नहीं मिला प्रधानमंत्री फसल बीमा का कवच

आजकल कार, बाइक, ट्रक, यात्रा, सामान, दुकान, जिंदगी, कर्ज, मर्ज, दुर्घटना, मकान आदि हर किस्म का बीमा उपलब्ध है परंतु गन्ने का बीमा नहीं हो सकता, आखिर क्यों? यह सवाल सत्ताधीशों से करते ही उनके चेहरे की हवाइयां पल भर में उड़ जातीं हैं।
केंद्र सरकार ने जब प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की शुरुआत की तो लंबी चौड़ी बातें की गईं परंतु शायद कम लोगों को ही पता होगा कि पीलीभीत जनपद व तराई बेल्ट की सर्वाधिक उत्पादन वाली मुख्य फसल व नगदी फसल कहीं जाने वाली गन्ने की फसल को ही प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में शामिल नहीं किया गया है। जबकि सभी जानते हैं कि गन्ना तराई के इलाके में जलभराव से डूबता भी है। काफी अधिक रकबे में प्रतिवर्ष गन्ना सूख भी जाता है। हजारों एकड़ में गन्ना जलने की खबरें भी आतीं हैं। जंगली जानवरों से गन्ने को काफी अधिक नुकसान पहुंचता है। आवारा पशु भी उगने से कटने तक गन्ने को नष्ट करते हैं। ऐसे में गन्ने को प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का सुरक्षा कवच न मिलना अपने आप में एक बड़ा सवाल है। लेकिन दूसरा पहलू यह है कि सरकार के नुमाइंदों, विपक्ष के नेताओं अथवा कृषक हितैषी कहे जाने वाले किसान संगठनों ने भी अभी तक गन्ने को प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में शामिल करने की मांग शायद पुरजोर ढंग से नहीं उठाई है। अगर गन्ने को इस योजना में शामिल किया जाता है तो जनपद के किसानों को उनके नुकसान का मुआवजा मिलेगा और उनकी आर्थिक स्थिति मजबूत होगी परंतु शायद बिल्ली के गले में घंटी बांधने को कोई भी तैयार नहीं है। इसी कारण गन्ना उत्पादक प्राकृतिक आपदाओं से मोटा घाटा उठाने को विवश हैं और उन्हें आज भी खेती मानसून का जुआं नजर आती है।
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लागत के सापेक्ष नहीं बढ़ाया जाता गन्ने का दाम

बीज के समय गन्ना काफी अधिक महंगा होता है। खादों के दाम निरंतर बढ़ते जा रहे हैं, कीटनाशक दवाइयां आसमान छू रही हैं। डीजल के दाम भी निरंतर बढ़ रहे हैं। छिलाई, बुबाई, गुड़ाई, लदाई, उतराई व ढुलाई की मजदूरी भी बेशुमार बढ़ी है। इन सब कारणों से गन्ने की उत्पादन लागत कई गुना बढ़ गई है परंतु अगर कुछ नहीं बढ़ रहा है तो वह है गन्ने का समर्थन मूल्य। व्यापारी जब अपना कोई उत्पाद तैयार करता है तो उसका अधिकतम बिक्री मूल्य (एमआरपी) खुद तय करता है परंतु बिडम्बना यह है कि गन्ना उगाने वाला किसान अपनी फसल का दाम तय नहीं कर पाता। चीनी मिलों की गिरफ्त में जकड़ी रहीं लगभग सभी सरकारें गन्ना मूल्य बढ़ाने में अपने हाथ बंधे महसूस करतीं रहीं हैं। यही कारण है कि कभी 5 बढ़ाया गया तो कई साल लगातार 1 रुपया कुंतल भी नहीं बढ़ाया गया। ऐसे में लागत के सापेक्ष बिक्री मूल्य न बढ़ने से किसानों को नगदी फसल गन्ने में भी पहले जैसा लाभ नहीं मिल पाता। साथ में नकली खाद व दवाओं से किसानों की जेब निरंतर कटती रहती है, फसल प्रभावित होती है। किसानों को गन्ने की छिलाई, बुबाई, पताई उठाने, गुड़ाई, खेत से भरवाई, ढुलाई, सेंटर पर उतरवाई जैसे मजदूरों पर आधारित खर्चे मार देते हैं।
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हर तरफ भनभना रहीं भ्रष्टाचारी मक्खियां

जहां मिठास होगी वहां मक्खियां आ ही जाएंगी, यह पुरानी कहावत गन्ने पर भी फिट बैठती है। गन्ने की फसल तैयार करने से लेकर बेचने और भुगतान प्राप्त करने तक किसानों को तमाम तरह से अनावश्यक खर्चे करने पड़ते हैं।
प्रदेश के गन्ना आयुक्त की गिनती ईमानदार अफसरों में हैं और उन्होंने विभाग में कई अहम सुधार भी किये हैं परंतु फिर भी विभाग में कदम दर कदम भ्रष्टाचार हावी है।
गन्ना उत्पादकों को सबसे पहला खर्चा गन्ने की फसल का सर्वे शुरू होते ही सट्टा बनवाने के नाम पर करना पड़ता है। उपज सही चढ़ जाए और पर्चियां कलैंडर में सही सेट हो जाएं इसके चलते गन्ना विभाग के अधिकारियों कर्मचारियों की जेब भरनी पड़ती है। कुछ लोग अतिरिक्त लाभ के लिए देते हैं तो बाकी को सही काम के लिए भी मजबूरन देना पड़ता है। इस मसले में किसानों की ज़रा सी कंजूसी पूरा इंडेट सिस्टम खराब कर देती है। इसलिए बिना दिए किसान भी सट्टा ठीक चलने के प्रति आश्वस्त नहीं हो पाते। बाद में भी एक-एक पर्ची प्राप्त करने के लिए जेब खाली करनी पड़ती है। कहने को सिस्टम लॉक है परंतु कम्प्यूटर ऑपरेटर की जादूगरी किसान बखूबी जानते हैं। सेंटरों पर गन्ना लेकर जाएं तो घटतौली स्वागत करती मिलती है। इसे एक तरह से हक बता दिया जाता है। हालांकि दलाल के भेष में कुछ किसान ही इस प्रक्रिया के जनक बने हुए हैं। यदि गन्ने की खरीद व बिना गन्ना दिए पर्ची लिखवाने की परंपरा बन्द हो तो घटतौली भी रुक जाएगी। सेंटरों पर गन्ने की उतराई भी गैर कानूनी ढंग से किसानों से वसूली जाती है जबकि यह खर्च ठेकेदार को करना चाहिए। कई बार भुगतान प्राप्त करने में भी कइयों की जेबें गर्म करनी पड़तीं हैं जबकि कहने को यह प्रक्रिया डिजिटल है। गन्ना सोसाइटी से खाद, बीज, दवाइयां व अन्य सहूलियतें पाने के बदले भी हक़ हुकूक देना ही पड़ता है। इन सबके अतिरिक्त और भी न जाने कितनीं भ्रष्टाचारी मक्खियां गन्ने पर आश्रित हैं और आसपास भनभनातीं रहतीं हैं।

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