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खुद को रौंदा हुआ महसूस कर रहे हैं कुम्हार

इलेक्ट्रॉनिक मोमबत्ती और झालरों से खत्म होती जा रही परंपरागत माटी के दीयों की परंपरा

अंधेरों में है उजाला बांटने वाले
गरीबी की जिंदगी
जी रहे हैं प्रजापति

कुंवर निर्भय सिंह माधोटांडा माटी कहे कुम्हार से तू क्यो रौंदे मोय एक दिन एेसा आएगा मैं रौंदूगी तोय यह पंक्तियां संत कबीर दास जी ने जीवन और मरण पर कहीं लेकिन आज इसका दूसरा अर्थ चरितार्थ होरहा है मिट्टी के महंगे दामों और बाजार में इलेक्ट्रॉनिक दियों, मोमबत्ती ,झालरों के तले प्रजापति आज अपने आपको रौंदा हुआ महसूस कर रहे हैं यही कारण है की दीपावली से महीनों पहले शुरू होने वाली तैयारी केवल अब एक रस्म रिवाज बनकर ही रह गई है आधुनिकता के चलते प्रजापति का मिट्टी व्यवसाय खत्म होता जा रहा है हालात यह कि इस व्यवसाय से जुड़े लोग भुखमरी की कगार पर है और सरकार भी इनकी तरफ कोई विशेष ख्याल नहीं रख रही है हर साल कुम्हार धन लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए मिट्टी के दीयों को बनाते हैं लेकिन लगता है जैसे लक्ष्मी उनसे रूठ गई है कमाई ना होने के चलते प्रजापति अब मिट्टी के व्यवसाय के साथ और दूसरा व्यवसाय भी अपना रहे वर्षों से मिट्टी का काम करने वाले प्रजापति अपने बच्चों को अब यह काम विरासत के तौर पर नहीं सौंपना चाहते है इलेक्ट्रॉनिक झालर और मोमबत्ती के बीच मिट्टी के दीप लोगों की आंखों में चमक पैदा नहीं कर पाते हैं अपने घरों को सजाने के लिए लोग दीपावली के अवसर पर इलेक्ट्रॉनिक झालरों मोमबत्ती LED लाइट आदि का इस्तेमाल कर रहे हैं वही मिट्टी के दीपों को केवल पूजा आदि में रस्म अदायगी के लिए ही करते हैं
दीपावली दीपों का पर्व माना जाता है इस पर्व के नजदीक आते ही महीनों पहले से ही प्रजापतिके चेहरों पर खुशी की लहर दौड़ जाती है एक और जहां दीपावली से पहले छोटे बड़े दीयों की डिमांड तेजी के साथ बढ़ जाती थी क्षेत्र के निर्मित दीयों की डिमांड पिथौरागढ़ चंपावत रानीखेत खटीमा अल्मोड़ा बागेश्वर नैनीताल आदि स्थानों पर होने से सप्लाई किए जाते थे अब बदलते वक्त के साथ लोग मिट्टी के दीयों को कम तरजीही दे रहे हैं और इलेक्ट्रॉनिक मोमबत्ती झालरों आदि को ज्यादा महत्व दे रहे हैं जिस कारण मिट्टी के दीपों की सप्लाई कम हो पा रही है उसके चलते इस व्यवसाय से जुड़े

लोगों का मन भी उचट रहा है और वह अपनी संतानों को इस पुश्तैनी धंधे से दूर रखकर अन्य व्यवसायों में लगा रहे
माधोटांडा थाना क्षेत्र के गांव नवदिया के इंटरमीडिएट पास प्रजापति नरेश का कहना है कि अब माटी के दीए कारवां आदि पकाने के लिए ईंधन भी सस्ता नहीं रहा है कुम्हारी कला केवल एक रस्म अदायगी ही रह गयी है परिवार का जीवन यापन होना बड़ा मुश्किल हो रहा है दस हजार दीयों पर उन्हें पांच से छः हजार रूपये मिलते हैं जिसमें से तीन हजार रूपये दीयों को बनाने आदि में खर्च हो जाते हैं केवल दो हजार से तीन हजार रूपये बचते है। जिनसे परिवार का पालन पोषण भी सही ढंग से नहीं हो पाता है और दिवाली बनाने के लिए पूरा परिवार जुटा रहता है।

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