
“ओ जनकसुता के चिर स्वामी, आओ फिर से टंकार भरो । इस भरत भूमि अरि के समक्ष , आओ फिर से हुंकार भरो”
विजयादशमी
ओ जनक सुता के चिर स्वामी, आओ फिर से टंकार भरो ।
इस भरत भूमि अरि के समक्ष , आओ फिर से हुंकार भरो।।
त्रेता में दशग्रीव अकेला, किंतु आप तब आये थे ।
कलि में तो प्रभु कोटि दशानन, जान नही क्या पाए थे।।
अंतर्यामी हो तुम प्रभु जी, जान गए होंगे ये हाल ।
हरण बचाने माँ का फिर से , चुप बैठे हो दशरथ लाल।।
करो हमारी चिंता भी प्रभु , कैसे हमे बचाओगे ।
पग -२ में दशग्रीव यहाँ , क्या भव से पार लगाओगे ।।
जीवन में विपदा से ही पर , तुमको तो है याद किया ।
भूल गए क्या रघुकुलभूषण , तुमने ना संदेश दिया ।।
धरणी के आँचल में अब भी , सुरभि आपकी आती है ।
दूर नही होना प्राणेश्वर , याद सदा ही आती है ।।
शक्ति सदा देना प्रभु हमको , कर्तव्यो पर अडिग रहे ।
मानवता के आदर्शों पर , लोग सदा ही सजग रहे ।।
सदा रहोगे उर में सबके , बनकर प्राणनाथ हितकार ।
हम दीनो की लाज बचाने , आना जल्दी ही सरकार ।।
साकेत बिहारी लाल की जय हो
नित्यदास —- “” ब्रजराज”””
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