
“युग युग से अब तक सबका उद्धार किया है दारू ने” : अदभुत
दारू
पीने वालों की महफ़िल में मान दिलाती है दारू।
कई विभागों को वेतन अनुदान दिलाती है दारू।
जाम्बवन्त बन सुप्त शक्ति का ध्यान दिलाती है दारू।
अनपढ़ को भी बहु भाषा का ज्ञान दिलाती है दारू।
अलबेलों की अलबेली पहचान कराती है दारू।
महामंद मानव को भी गतिमान कराती है दारू।
वृथा मनुज का सामाजिक यश गान कराती है दारू।
समय पूर्व नश्वर तन का अवसान कराती है दारू।
पल भर में दारू सदेह को भी विदेह कर देती है।
दारू है जो एक बराबर चुरू लेह कर देती है।
दारू शोध कराती है अच्छे अच्छों से नाली में।
दारू फ़र्क मिटाती है प्रतिवासिन में घरवाली में।
बोतल दिखती मुखमंडल पर दिव्य चमक आजाती है।
प्रापक में अपनाने की चाहत व ललक आ जाती है।
सेवन करते ही तन मन में अजब लचक आ जाती है।
बिना किसी मतलब ही जिव्हा पर बकबक आ जाती है।
जाते ही दो घूँट कंठ अभिमान प्रकट हो जाता है।
भौंह तने नैनो में अनुसंधान प्रकट हो जाता है।
कभी कभी अंतर्मन में भगवान प्रकट हो जाता है।
फिर क्या है जिव्हा पर गीताज्ञान प्रकट हो जाता है।
बेशक देसी कच्ची पक्की ठर्रा हो या अँगरेजी हो।
इसको देख बहक जाता कितना भारी परहेजी हो।
पान सुरा का करके मानव खुद को सुर समझा करते।
मदिरा को अमृत मदिरालय को सुरपुर समझा करते।
नाग यक्ष गंधर्व दैत्य को प्यार किया है दारू ने।
युग युग से अबतक सबका उद्धार किया है दारू ने।
दारू और दवा दोंनो हैं माना मौसेरी बहनें।
एक न कहने दे कुछ भी उल्टे दूजी के क्या कहने।
खुशियों के पल हों या दुख हो सबसे प्यारी है दारू।
बिगड़े काम कराने में नोटों से भारी है दारू।
बनते बिगड़े काम यहाँ सब है बलिहारी दारू की।
दीवानी है इसीलिए यह दुनिया सारी दारू की।
दो पैगों से ही इनमें बदलाव दिखाई देता है।
आधा कुंटल भार इन्हें दो पाव दिखाई देता है।
बातों में इनकी शेरों सा ताव दिखाई देता है।
इनमें अब भी सर्वधर्म समभाव दिखाई देता है।
ब्रांडी रम व्हिस्की अंगूरी शैम्पेन बोडका जिन वीयर।
ठर्रा कच्ची पीकर बदलें अच्छे अच्छे अपने गीयर।
होंठों से छूते ही बनता है मुँह सत्तर कोने का।
पाने की न खुशी रहती ना दुख रहता है खोने का।
क्या चिंता गिर पड़ने की क्या चिंता मिलती गाली की।
क्या चिंता घर बच्चों की क्या चिंता लोटा थाली की।
क्या चिंता पल पल होते इन सामाजिक उपहासों की।
क्या चिंता मिट्टी तन की क्या चिंता धड़कन साँसों की।
यूँ तो मानव इस जग से निज लाभ हेतु तन जाता है।
लेकिन पैग बनाये तो विक्रमादित्य बन जाता है।
कितना भी लोभी कपटी हो मुँह में पानी भरआये।
क्या मजाल उसके हाथों रत्ती भर भी अंतर आए।
मंथन ने दी निधि अमूल्य जो सबसे अधिक प्रसिद्ध हुई।
मन की जिव्हा पर लाने में बड़ी सहायक सिध्द हुई।
कोरोना को धता बताने में सब लायक सिद्ध हुई।
किन्तु वास्तव में यह सामाजिक खलनायक सिद्ध हुई।
पीने के बाद महामानव मनुज जाति से परे हुए।
थोड़े दिन पीने भर से मोटे ताजे अधमरे हुए।
घर में घुसते अलबेली सी भाव भंगिमा करे हुए।
चिंता में इनके घरवाले रहते हरदम डरे हुए।
रचनाकार-उमेश त्रिगुणायत ‘अद्भुत’
(अद्भुत जी गोमती उद्गम नगरी माधोटांडा के मूल निवासी व वर्तमान में रामा इंटर कॉलेज पीलीभीत में कार्यरत हैं। अतिरिक्त समय में झुमका सिटी में रहकर हास्य बांटने हेतु प्रयासरत हैं)